जन्मपत्री-जन्म कुण्डली निर्माण विधि

“ॐ हरि हर नमो नमःॐ”
┉┅━❀꧁꧂❀━┅┉

जन्म कुण्डली के प्रारूप

• १ टेवा प्रारूप

• २. जन्माक्षर प्रारूप 

• ३. जन्म पत्रिका प्रारूप

• ४. षड्वर्गीय प्रारूप

• ५. सप्तवर्गीय प्रारूप

• ६. षोडशवर्गीय प्रारूप

– टेवा का प्रारूप :- 

टेवा १ पन्ने का होता है इसका प्रारूप इस प्रकार है –

२ – जन्माक्षर का प्रारूप :-

जन्माक्षर की पत्रिका छपती है जिसमे निम्न होता है :-

१. जन्म चक्र, २. चंद्र चक्र या ३. राशि चक्र और ४. फलादेश होता है!

३- जन्म पत्रिका का प्रारूप :- 

जन्म पत्रिका छपती है जिसमे निम्न होता है :-

१. ग्रह स्पष्ट, २. ग्रह अवस्था, ३. ग्रह कारक, ४.जन्म चक्र, ५. चंद्र चक्र या राशि चक्र, ६. नवमांश चक्र, ७. कारकांश चक्र, ८. विशोंतरी महादशा, ९. अंतर्दशा और १०. फलादेश होता है!

४- षड्वर्गीय का प्रारूप :- 

षड्वर्गीय जन्म पत्रिका छपती है जिसमे निम्न होता है :-

१. ग्रह स्पष्ट, २. ग्रह अवस्था, ३. ग्रह कारक, ४.जन्म चक्र, ५. चंद्र चक्र या राशि चक्र, ६. नवमांश चक्र, ७. कारकांश चक्र, ८. विशोंतरी महादशा, ९. अंतर्दशा और १०. फलादेश होता है!

५- सप्तवर्गीय का प्रारूप :-

सप्तवर्गीय जन्म पत्रिका छपती है जिसमे निम्न होता है :-

१. ग्रह स्पष्ट, २. ग्रह अवस्था,  ३. ग्रह कारक, ४. जन्म चक्र, ५. चंद्र चक्र या राशि चक्र, ६. पंचधामैत्री, ७. द्वादश भाव, ८. चलित चक्र, ९. होरा चक्र, १०. द्रेष्काण, ११. सप्तमांश चक्र, १२. नवमांश चक्र, १३. द्वादशांश चक्र, १४. त्रिशांश चक्र, १५. सप्तवर्गकोष्टक, १६. विशोंतरी महादशा, १७. अंतर्दशा, १८. योगिनी महादशा और १९. फलादेश होता है!

६ – षोडशवर्गीय का प्रारूप :-

षोडशवर्गीय जन्म पत्रिका छपती है जिसमे निम्न होता है :-

१. ग्रह स्पष्ट,२. ग्रह अवस्था,  ३. ग्रह कारक, ४. जन्म चक्र, ५. चंद्र चक्र या राशि चक्र, ६. पंचधामैत्री, ७. द्वादश भाव, ८. चलित चक्र, ९. होरा चक्र, १०. द्रेष्काण, ११. चतुर्थांश १२. सप्तमांश चक्र, १३. नवमांश चक्र, १४. दशमांश चक्र, १५. द्वादशांश चक्र, १६. षोडशांश चक्र, १७. विशांश चक्र, १८. चतुर्विशांश चक्र, १९. भांशेश चक्र, २०. त्रिशांश चक्र, २१. खवेदांश चक्र, २२. अथाक्षवेदांश चक्र, २३. षष्टयंश चक्र, २४. विशोंतरी महादशा, २५. अंतर्दशा, २६. योगिनी महादशा और २७. फलादेश होता है, इसके अतिरिक्त इसमें सारे ग्रहों के रेखाष्ट्क एवं प्रत्यन्तर दशा भी होती है!

द्वादश भाव :-

जिस तरह आकाश मण्डल में बारह राशियां हैं, वैसे ही वर्तमान समय में कुंडली में बारह भाव (द्वादश भाव) होते हैं। जन्म कुंडली या जन्मांग चक्र में किसी के जन्म समय में आकाश की उस जन्म स्थान पर क्या स्थिति थी, इसका आकाशी नक्श है। 

प्रथम भाव : इसे लग्न कहते हैं। अन्य कुछ नाम ये भी हैं : हीरा, तनु, केन्द्र, कंटक, चतुष्टय, प्रथम। इस भाव से मुख्यत: जातक का शरीर, मुख, मस्तक, केश, आयु, योग्यता, तेज, आरोग्य का विचार होता है।

द्वितीय भाव : यह धन भाव कहलाता है। अन्य नाम हैं, पणफर, द्वितीय। इससे कुटुंब-परिवार, दायीं आंख, वाणी, विद्या, बहुमुल्य सामग्री का संग्रह, सोना-चांदी, चल-सम्पत्ति, नम्रता, भोजन, वाकपटुता आदि पर विचार किया जाता है।

तृतीय भाव : यह पराक्रम भाव के नाम से जाना जाता है। इसे भातृ भाव भी कहते हैं। अन्य नाम हैं आपोक्लिम, अपचय, तृतीय। इस भाव से भाई-बहन, दायां कान, लघु यात्राएं, साहस, सामर्थ्य अर्थात् पराक्रम, नौकर-चाकर, भाई बहनों से संबंध, पडौसी, लेखन-प्रकाशन आदि पर विचार करते है।

चतुर्थ भाव : यह सुख भाव कहलाता है। अन्य नाम हैं- केन्द्र, कंटक, चतुष्टय। इस भाव से माता, जन्म समय की परिस्थिति, दत्तक पुत्र, हृदय, छाती, पति-पत्नी की विधि यानी कानूनी मामले, चल सम्पति, गृह-निर्माण, वाहन सुख का विचार करते है।

पंचम भाव : यह सुत अथवा संतान भाव भी कहलाता है। अन्य नाम है-त्रिकोण, पणफर, पंचम। इस भाव से संतान अर्थात् पुत्र .पुत्रियां, मानसिकता, मंत्र-ज्ञान, विवेक, स्मरण शक्ति, विद्या, प्रतिष्टा आदि का विचार करते हैं।

षष्ट भाव : इसे रिपुभाव कहते हैं। अन्य नाम हैं रोग भाव, आपोक्लिम, उपचय, त्रिक, षष्ट। इस भाव से मुख्यत: शत्रु, रोग, मामा, जय-पराजय, भूत, बंधन, विष प्रयोग, क्रूर कर्म आदि का विचार होता है।

सप्तम भाव : यह पत्नी भाव अथवा जाया भाव कहलाता है। अन्य नाम हैं-केन्द्र, कंटक, चतुष्टय, सप्तम। इस भाव से पति अथवा पत्नी, विवाह संबंध, विषय-वासना, आमोद-प्रमोद, व्यभिचार, आंतों, सांझेदारी के व्यापार आदि पर विचार किया जाता है।

अष्टम भाव : इसे मृत्यु भाव भी कहते हैं। अन्य नाम हैं-लय स्थान, पणफर, त्रिक, अष्टम। आठवें भाव से आयु, मृत्यु का कारण, दु:ख-संकट, मानसिक पीड़ा, आर्थिक क्षति, भाग्य हानि, गुप्तांग के रोगों, आकस्मिक धन लाभ आदि का विचार होता है।

नवम भाव : इसे भाग्य भाव कहलाता हैं। अन्य नाम हैं त्रिकोण और नवम। भाग्य, धर्म पर आस्था, गुरू, पिता, पूर्व जन्म के पुण्य-पाप, शुद्धाचरण, यश, ऐश्वर्य, वैराग्य आदि विषयों पर विचार इसी भाव के अन्तर्गत होता है।

दशम भाव : यह कर्म भाव कहलाता है। अन्य नाम हैं- केन्द्र, कंटक, चतुषृय-उपचय, राज्य, दशम। दशम भाव से कर्म, नौकरी, व्यापार-व्यवसाय, आजीविका, यश, सम्मान, राज-सम्मान, राजनीतिक विषय, पदाधिकार, पितृ धन, दीर्ध यात्राएं, सुख आदि पर विचार किया जाता है।

एकादश भाव : यह भाव आय भाव भी कहलाता है। अन्य नाम हैं- पणफर, उपचय, लब्धि, एकादश। इस भा से प्रत्येक प्रकार के लाभ, मित्र, पुत्र वधू, पूर्व संपन्न कर्मों से भाग्योदय, सिद्धि, आशा, माता की मृत्यु आदि का विचार होता है

द्वादश भाव : यह व्यय भाव कहलाता है। अन्य नाम हैं- अंतिम, आपोक्लिम, एवं द्वादश। इस भाव से धन व्यय, बायीं आंख, शैया सुख, मानसिक क्लेश, दैवी आपत्तियां, दुर्घटना, मृत्यु के उपरान्त की स्थिति, पत्नी के रोग, माता का भाग्य, राजकीय संकट, राजकीय दंड, आत्म-हत्या, एवं मोक्ष आदि का विचार किया जाता है।

दिनांक एवं समय :-

भारतीय ज्योतिष में सूर्योदय से ही दिन बदलता है। अंग्रेजी तारीख अथवा दिन रात १२ बजे से प्रारम्भ होकर अगली रात में १२ बजे तक चलता है। अंग्रेजी में रात १२ से दिन में १२ बजे दोपहर तक ए. एम. ( दिन) तथा दोपहर १२ बजे से रात १२ बजे तक पी. एम. (रात) लिखा जाता है। अंग्रेजी कैलेन्डर के अनुसार रात १२ बजे से दिन बदल जाता है। इसीलिये अंग्रेजी तारीख भी रात १२ बजे से बदल जाती है। इसलिए कुण्डली बनाते समय इसका ध्यान रखना चाहिए। रात में १२ बजे के बाद जो बालक पैदा होगा, उसके लिए अगली तारीख जैसे दिन में २० अप्रैल है, और लड़का रात १ बजे पैदा हुआ है तो २१ अप्रैल ए. एम. लिखा जायेगा। इसलिए कुण्डली बनाते समय पञ्चाङ्ग में २० अप्रैल की ही तिथि नक्षत्र आदि लिखना चाहिये। आजकल कुण्डली में अंग्रेजी तारीख भी लिखी जाती है, अत: कुण्डली में २०/२१ अप्रैल रात्रि १ बजे लिखना चाहिए। जिससे भ्रम न हो सके।

नक्षत्र :-

कुण्डली में दिन के बाद नक्षत्र लिखा जाता है। 

कुल २७ नक्षत्र होते हैं –

नक्षत्र चक्र

१. अश्विनी, २. भरणी, ३. कृत्तिका, ४. रोहिणी, ५. मृगशिरा, ६. आद्रा, ७. पुनर्वसु, ८. पुष्य, ९. अश्लेषा, १०. मघा, ११. पूर्वा फाल्गुनी, १२. उत्तरा फाल्गुनी, १३. हस्त, १४. चित्रा, १५. स्वाती, १६. विशाखा, १७. अनुराधा, १८. ज्येष्ठा, १९. मूल, २०. पूर्वाषाढ़ा, २१. उत्तराषाढ़ा, २२. श्रवण, २३. धनिष्ठा, २४. शतभिषा, २५. पूर्वाभाद्रपद, २६. उत्तरा भाद्रपद तथा २७. रेवती।
अभिजित नक्षत्र यह अलग से कोई नक्षत्र नही होता है। बल्कि उत्तराषाढ़ा की अन्तिम १५ घटी तथा श्रवण की प्रारम्भ की ४ घटी के योग कुल १९ घटी का अभिजित नक्षत्र माना जाता है, किन्तु यह कुण्डली में न लिखा जाता है और न पञ्चाङ्गों में ही लिखा रहता है। नक्षत्र को “ऋक्ष” अथवा “भ” भी कहते हैं। जैसे गताक्र्ष में ऋक्ष है, जिसका अर्थ है, गतऋक्ष (नक्षत्र ) । इसी तरह “भयात” में “भ” का अर्थ नक्षत्र है। पञ्चाङ्गों में प्रतिदिन का नक्षत्र तथा उसका मान (कब तक है) घटी-पल में लिखा रहता है। जिसे देखकर कुण्डली में लिखना चाहिये।

योग :-

कुण्डली में नक्षत्र के बाद योग लिखा जाता है।

योग सूर्य – चन्द्रमा के बीच ८०० कला के अन्तर पर एक योग बनता है।

कुल २७ योग होते हैं, जिनके नाम इस प्रकार हैं- १. विष्कुम्भ, – २. प्रीति, ३. आयुष्मान, ४. सौभाग्य, ५. शोभन, ६. अतिगण्ड, ७. सुकर्मा, ८. धृति, ९. शूल, १०. गण्ड, ११. वृद्धि, १२. ध्रुव, १३. व्याघात, १४. हर्षण, १५. वङ्का, १६. सिद्धि, १७. व्यतिपात, १८. वरियान, २०. परिघ, २१. सिद्ध, २२. साध्य, २३. शुभ, २४. शुक्ल, २५. ब्रह्म, २६. ऐन्द्र तथा २७. वैधृति।

पञ्चाङ्ग में योग के आगे घटी-पल लिखा रहता है। जिसका अर्थ है, सूर्योदय के बाद कब तक वह योग रहेगा। जिस तरह तिथि नक्षत्र का क्षय तथा वृद्धि होती है, उसी तरह योग का भी क्षय तथा वृद्धि होती है। जब दो दिन सूर्योदय में एक ही योग हो तो उस योग की वृद्धि होगी। जब दोनों दिन सूर्योदय के समय जो योग नहीं है, तो उस योग का क्षय माना जाता है। तिथि, नक्षत्र, योग का जो क्षय कहा गया है, उससे यह नहीं समझना चाहिए कि उस तिथि अथवा नक्षत्र अथवा योग का लोप हो गया है। वह तिथि, नक्षत्र, योग उस दिन रहेगा। केवल सूर्योदय के पूर्व समाप्त हो जायेगा।

करण :-

कुण्डली में योग के बाद करण लिखा जाता है।

कुल ११ करण होते हैं, जिनके नाम इस प्रकार हैं-

१. वव, २. वालव, ३. कौलव, ४. तैतिल, ५. गर, ६. वणिज, ७. विष्टि या भद्रा, ८. शकुनि, ९. चतुष्पद, १०. नाग, ११. किस्तुघ्न। 

इसमें १ से ७ तक के ७ करण चर संज्ञक हैं। जो एक माह में लगभग ८ आवृत्ति करते हैं। अन्त का चार ८ से ११ तक शकुनि, चतुष्पद, नाग तथा किस्तुघ्न करण स्थिर संज्ञक हैं। स्थिर करण सदा कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी के उत्तरार्ध से प्रारम्भ होते हैं। कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को आधी तिथि के बाद शकुनि करण । अमावस्या के पूर्वार्ध में चतुष्पद करण। अमावस्या के उत्तरार्ध में नाग करण । शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा के पूर्वार्ध में किस्तुघ्न करण होता है। इसीलिए यह स्थिर संज्ञक है। एक तिथि में २ करण होते हैं । तिथि के आधे भाग पूर्वार्ध में १ करण तथा तिथि के आधे भाग उत्तरार्ध में दूसरा करण होता है। अर्थात ‘तिथि अर्धं करणं’ अर्थात तिथि के आधे भाग को करण कहते हैं या सूर्य चन्द्रमा के बीच १२ अंश के आधे ६ अंश को करण कहते हैं। कुण्डली में जन्म के समय जो करण हो, वही लिखा जाता है।

अयनांश साधन :-

जिस वर्ष का अयनांश बनाना हो, उस वर्ष के शक में से १८०० घटाकर, शेष गत वर्ष को दो स्थानों में रखें। प्रथम स्थान के शेष में ७० से भाग दें तो लब्धि में अंश आता है। इसके शेष में ६० का गुणा कर पुन: ७० से भाग दें तो लब्धि में कला आयेगी। इसके शेष में ६० का गुणा कर पुन: ७० से भाग दें तो लब्धि में विकला प्राप्त होगी। ये पहिले शेष के अंशादि लब्धि होते हैं। द्वितीय स्थान में रखे हुए शेष (शाके में से १८०० घटाकर जो शेष लाये हैं) गत वर्ष में ५० से भाग दें तो लब्धि में कला, इसके शेष में ६० से गुणा कर पुन: ५० से भाग दें तो लब्धि में विकला प्राप्त होगी। ये दूसरे शेष के कलादि होते हैं। प्रथम लब्धि के अंशादि में से द्वितीय लब्धि के कलादि घटाकर शेष में २२ अंश, ८ कला, ३३ विकला जो ध्रुवांक है, दें तो अयनांश बन जाता है। इस अयनांश में प्रत्येक माह का अयनांश जोड़ देने से स्पष्ट अयनांश बन जाता है।

वेलान्तर :-

पुस्तक में वेलान्तर सारिणी लिखी होती है। वेलान्तर सारिणी में ऊपर मास तथा पाश्र्व में तारीख लिखी होती है। जातक के अंग्रेजी जन्म मास-तारीख को सारिणी में देखें। माह तारीख – के सामने कोष्ठक (खाने) में जो अंक मिले, उसे ले लें। यह अंक मिनट होगा। सारिणी में मिनट के पहले ऋण (-) अथवा (+) का चिह्न बना रहता है। अत: ऋण (-) मिनट लिखा है, उसे मिनट को अपने जन्म शुद्ध समय में घटा दें। जहाँ धन (1) मिनट लिखा है, उस मिनट को अपने शुद्ध समय में जोड़ दें। यही जातक का स्थानीय शुद्ध जन्म समय होगा।

स्थानीय समय :-

भारत के रेखांश ८२०३०’ में जातक के जन्म नगर के रेखांश का अन्तर करे। जो शेष बचे उसमें ४ से गुणा करें। जो गुणनफल आयेगा, वह मिनट सेकण्ड होगा। इस मिनट सेकण्ड को अपने समय में घटा या जोड़ दें। यही जातक का शुद्ध जन्म समय होगा। यदि अपने जन्म नगर का रेखांश ८२० ३०’ से अधिक है तो अपने जन्म नगर के रेखांश में ८२० • ३०’ घटा दें। जो शेष बचे उसे ४ से गुणा करें। यह गुणनफल मिनट-सेकण्ड होगा। इस मिनट सेकण्ड को जातक जन्म – समय के मिनट-सेकण्ड में जोड़ दें यह अपना शुद्ध जन्म समय होगा।

राशि और राशि अधिपति :-

कुल २७ नक्षत्र होते हैं। १-१ नक्षत्र में ४-४ चरण होते हैं। प्रत्येक चरण की १-१ राशि होती है। कुल १२ राशियां हैं – जो इस प्रकार हैं।

१. मेष, २. वृष, ३. मिथुन, ४. कर्क, ५. सिंह, ६. कन्या, ७. तुला, ८. वृश्चिक, ९. धनु, १० मकर, ११. कुम्भ तथा १२. मीन

इन १२ राशियों के स्वामी इस प्रकार है – १. मेष – मंगल, २. वृष- शुक्र, ३. मिथुन बुध, ४. कर्क- चन्द्र, ५. सिह – सूर्य, ६. कन्या – बुध, ७. तुला – शुक्र, ८. वृश्चिक मंगल, ९. धनु – गुरु, १० मकर शनि, ११. कुम्भ – शनि तथा १२. मीन – गुरु ।

राहु तथा केतु छाया ग्रह हैं। ये दोनों किसी राशि के स्वामी नहीं होते हैं।

राशि अनुसार नाम अक्षर :- 

सामान्यतः चन्द्र राशि को ही राशि के नाम से सम्बोधित किया जाता है। जन्म के समय चन्द्रमा जिस राशि में स्थित हो, वही राशि चन्द्र राशि अथवा जन्म राशि कहलाती हैं। वैदिक ज्योतिष में सूर्य राशि से अधिक महत्ता चन्द्र राशि को दी गयी है। इसीलिए वैदिक ज्योतिष में राशिफल चन्द्र राशि पर आधारित है।खगोलशास्त्र में क्रांतिवृत्त अर्थात सूर्यपथ में स्थित तारामण्डलों के समूह को राशि चक्र कहते हैं। इस राशि चक्र को बारह बराबर भागों में बाँटा गया है। इन भागों को राशि के रूप में जाना जाता है। प्रत्येक राशि एक चिह्न के साथ जुड़ी होती है। यह बारह राशियाँ मेष, वृषभ, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुंभ और मीन हैं।हिन्दु संस्कृति में नाम का पहला अक्षर जन्म के समय राशि या नक्षत्र के अनुसार तय होता है।

राशि अनुसार नाम अक्षर
  • मेष – चू, चे, चो, ला, ली, लू, ले, लो, आ
  • वृष – ई, ऊ, ए, ओ, वा, वी, वू, वे, वो
  • मिथुन – का, की, कू, घ, ङ, छ, के, को, ह
  • कर्क – ही, हू, हे, हो, डा, डी, डू, डे, डो
  • सिंह – मा, मी, मू, मे, मो, टा, टी, टू, टे
  • कन्या – ढो, पा, पी, पू, ष, ण, ठ, पे, पो
  • तुला – रा, री, रू, रे, रो, ता, ती, तू, ते
  • वृश्चिक – तो, ना, नी, नू, ने, नो, या, यी, यू
  • धनु – ये, यो, भा, भी, भू, धा, फा, ढा, भे
  • मकर – भो, जा, जी, खी, खू, खे, खो, गा, गी
  • कुंभ – गू, गे, गो, सा, सी, सू, से, सो, दा
  • मीन – दी, दू, थ, झ, ञ, दे, दो, चा, ची

वर्ण-गण-नाड़ी 

पञ्चाङ्गों में प्रत्येक नक्षत्र के नीचे, राशि, वर्ण, वश्य, योनि, – राशिस्वामी, गण तथा नाड़ी का नाम लिखा रहता है। उसे देखकर जातक का जो जन्म नक्षत्र हो, उसके नीचे लिखे वर्ण, गण-नाड़ी आदि लिखना चाहिए। पञ्चाङ्गों में राशि स्वामी के लिए “राशीश” लिखा रहता है। राशि स्वामी, राशीश तथा राशिपति का एक ही अर्थ है। उस राशि का ग्रह अर्थात् राशि का स्वामी ग्रह ही राशीश कहा जाता है। कृत्तिका नक्षत्र के नीचे १/३ लिखा है। मृगशिरा नक्षत्र में २-२ लिखा है। अत: यदि अपना जन्म नक्षत्र कृत्तिका का प्रथम चरण है, तो मेष राशि, क्षत्रिय वर्ण, भौम राशीश होगा। यदि कृत्तिका २-३-४ चरण है, तो वृष राशि, वैश्य वर्ण तथा शुक्र राशीश होगा। इसी तरह सर्वत्र समझना चाहिए।

वर्ग :-

षड्वर्गीय कुण्डली में “”वर्ग स्थिते” लिखा रहता है। इसका अ है, जातक की जन्म राशि का नाम किस वर्ग में आता है। कुल वर्ग होते हैं। इसमें जो अक्षर आते हैं, वह इस प्रकार हैं –

कुण्डली में वर्ग तालिका


अपने से पंचम वर्ग से वैर, चतुर्थ से मित्रता तथा तीसरे से समत होती है। जातक की जन्म की राशि का पहला अक्षर जिस वग में पड़े वही वर्ग लिखना चाहिए। जैसे- राशि नाम-पन्नालाल क पहला अक्षर प है, जो प वर्ग में पड़ता है। अत: कुण्डली में वर्ग लिखना चाहिए।


युञ्जा :- 

षड्वर्गीय कुण्डली में “युंजा” भी लिखा होता है। कुल २७ नक्षत्र होते हैं । ६ नक्षत्र का पूर्वयुंजा १२ नक्षत्र का मध्यभाग के मध्ययुंजा तथा ९ नक्षत्र का परभाग अन्त्ययुंजा होता है। इसे ही युंजा कहते हैं। पूर्वभाग के ६ नक्षत्र रेवती, अश्विनी, भरणी, कृतिका, रोहिणी तथा मृगशिरा पूर्वयुंजा मध्यभाग के १२ – नक्षत्र- आद्रा, पुनर्वसु, पुष्य, अश्लेषा, मघा, पूर्वा फाल्गुनी, उत्तरा फाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाती, विशाखा तथा अनुराधा मध्ययुंजा एवं परभाग के ९ नक्षत्र ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढ़ा, श्रवण, धनिष्ठा, शतमिषा, पूर्वाभाद्रपद तथा उत्तराभाद्रपद पर या अन्त्ययुंजा होता है। जातक का जन्म नक्षत्र जिस भाग में पड़े वही भाग कुण्डली में लिखना चाहिए।

हंसक अथवा तत्व: –

षड्वर्गीय कुण्डली में “हंसक” लिखा रहता है। अत: हंसक जानने की विधि दी जा रही है। हंसक को तत्त्व भी कहते हैं। कुल ४ तत्त्व अथवा हंसक होते हैं – १. अग्नि तत्त्व, २. भूमि – तत्त्व, ३. वायु तत्त्व तथा ४ जल तत्त्व । ये तत्त्व राशि के अनुसार होते हैं –

  • ०१. मेष राशि – अग्नि तत्त्व
  • ०२. वृष राशि – भूमि तत्त्व
  • ०३. मिथुन राशि – वायु तत्त्व
  • ०४. कर्व राशि – जल तत्त्व
  • ०५. सिंह राशि – अग्नि तत्त्व
  • ०६. कन्या राशि – भूमि तत्त्व
  • ०७. तुला राशि – वायु तत्त्व
  • ०८. वृश्चिक राशि – जल तत्व 
  • ०९. धनु राशि – अग्नि तत्व 
  • १०. मकर राशि – भूमि तत्व 
  • ११. कुम्भ राशि – वायु तत्व 
  • १२. मीन राशि – जल तत्त्व

जातक की जो जन्म राशि हो, उसी के तत्त्व को हंसक जानना चाहिए।

इष्टकाल बनाने के नियम :-

इष्टकाल बनाने के मुख्यतः चार नियम हैं। जहां पर जो नियम लागू हो, उसे वहां घटित कर इष्टकाल निकाल लेना चाहिए।

  • नियम १ : यदि जन्म सूर्योदय से लेकर १२ बजे के भीतर का हो, तो जन्म समय और सूर्योदय काल का अन्तर कर शेष को ढाई गुणा करने से घटी आदि इष्टकाल होता है।
  • नियम २ : यदि १२ बजे दिन से सूर्यास्त के भीतर का जन्म हो, तो जन्म समय और सूर्यास्त काल का अन्तर कर शेष को ढाई से गुणा कर दिनमान में से घटाने पर घट्यादि इष्टकाल होता है।
  • नियम ३ : यदि सूर्यास्त से १२ बजे रात्रि के भीतर का जन्म हो, तो जन्म समय और सूर्यास्त का अन्तर कर शेष को ढाई गुणा कर दिनमान में जोड़ देने से इष्टकाल होता है।
  • नियम ४ : यदि रात के १२ बजे के पश्चात् और सूर्योदय के पहले का जन्म हो, तो सूर्योदय काल और जन्म समय का अन्तर कर शेष को ढाई से गुणा कर ६० घटी से घटाने पर घटी आदि इष्टकाल होता है।
  • नियम ५ : सूर्योदय से लेकर जन्म समय तक जितने घण्टे, मिनट और सैकेण्ड हों, उन्हें ढाई गुणा कर देने से घटी आदि इष्टकाल होता है।
  • उपरोक्त पांचों नियमों में इस बात का पूरा ध्यान रखना चाहिए कि पीछे बतायी गयी विधि से स्थानीय सूर्योदय समय, सूर्यास्त समय, स्थानीय दिनमान, स्टैण्डर्ड टाइम से लोकल टाइम तथा वेलान्तर कर शुद्ध समय स्पष्ट करने के बाद ही इष्टकाल निकालना चाहिए।

About the Author

Pandit Harshit Dwivedi

Pandit Harshit Dwivedi Ji Maharaj is a highly educated and simple, truthful and meaningful Astrological Vastu consultant, who is striving to take the Sanatan Vedic religion and religious traditions and the divine power to the highest pinnacle of progress on this planet.
He has received higher education in astrology and Pandit rituals from Sri Sri Vidyadham Indore and Maharishi Sandipani Ashram Ujjain. While studying many classical Vedic texts, Pandit Harshit Dwivedi has also taken training in astrology from his grandfather who is a great practitioner of astrology.
Pandit Harshit Dwivedi, through his scripture-approved wisdom and intellectual skills, provided relief to thousands of distressed and troubled people from their marital, business, political, job, progress, children, educational, property, vehicle, livelihood, divorce, court disputes, imprisonment etc. Are helping to get it. Pandit Harshit Dwivedi is serious, sensitive and dedicated towards his profession. Their objective is to make the common people positive towards life. He has a disciplined, strict but simple, religious and spiritual personality.

8 thoughts on “जन्मपत्री-जन्म कुण्डली निर्माण विधि

  1. श्रद्धेय श्री जी ! नमो नमः। आपकी पाण्डित्यपूर्ण पाठ्य सामग्री से लाभान्वित अनुभव करके कृतज्ञता ज्ञापक संदेश लिखने को विवश हूं। वस्तुत: परीक्षोपयोगी महती सामग्री सरल , सरस और सहज रूप से मिलना किसी वरदान से कम नहीं है। शेष समय मिलने पर व्यक्त करूंगा। तब तक के लिए मेरे आभार स्वीकार अनुगृहीत करें।

  2. My query was how should I put all planets in different 11 houses , as I know how should I put the sun in any house which depends upon the time of birth for example if one has his birth in between the 4 AM to 6 AM then sun will be in 1 house means lagna, I want to learn all planets to be placed in different 12 houses. How should they be placed in 12 houses.

    1. Before placing the planets in the 12th house of the birth chart, you will have to see which planet is transiting in which zodiac sign at the time the person is born and with how many degrees, after studying the transit position of the planets accurately. You can place a planet in your birth chart.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

You may also like these

No Related Post

× आपकी कैसे मदद कर सकता हूं?