“ॐ हरि हर नमो नमःॐ”
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माधव के अनुसार मुहूर्तमात्रसत्वेऽपि दिने गौरीव्रतंपरा। पराविद्धा तृतीया ग्रहण करना चाहिए।
गणगौर (गौरी तृतीया)
शास्त्रों के अनुसार चैत्र माह शुक्ल पक्ष तृतीया को गणगौर के रूप में मनाया जाता है। यह त्यौहार मुख्यतः हरियाणा, राजस्थान, मध्य प्रदेश तथा उत्तर प्रदेश सहित देश के विभिन्न क्षेत्रों में मनाया जाता है। ब्रज में भी यह त्यौहार अत्यन्त लोकप्रियता से मनाया जाता है। गणगौर के नाम में गण का अर्थ भगवान शिव एवं गौर का अर्थ माता पार्वती से है।
गणगौर के दिन अविवाहित कन्यायें एवं विवाहित स्त्रियाँ भगवान शिवजी एवं माता पार्वती जी की पूजा करती हैं। अनेक क्षेत्रों में भगवान शिव को ईसर जी एवं देवी पार्वती को गौरा माता के रूप में पूजा जाता है। गौरा जी को गवरजा जी के नाम से भी जाना जाता है। धर्मग्रन्थों के अनुसार, पूर्ण श्रद्धाभाव से इस व्रत का पालन करने से अविवाहित कन्याओं को इच्छित वर की प्राप्ति होती है तथा विवाहित स्त्रियों के पति दीर्घायु एवं आरोग्यवान होते हैं।
गणगौर पूजन में महिलायें बालू अथवा मिट्टी की गौरा जी का निर्माण करके उनका सम्पूर्ण श्रृंगार करती हैं। तत्पश्चात उनका विधि-विधान से पूजन करते हुये लोकगीतों का गायन करती हैं।
व्रतोत्सवसंग्रह के अनुसार, इस दिन भोजन में मात्र एक समय दुग्ध का पान करके उपवास का पालन करने से स्त्री को पति एवं पुत्रादि का अक्षय सुख प्राप्त होता है।
इस व्रत की विशेषता है कि इसे पति से छुपाकर किया जाता है। यहाँ तक कि गणगौर पूजा का प्रसाद भी पति को नहीं दिया जाता है। इसके पीछे का कारण जानने के लिये आपको गणगौर व्रत कथा पढ़नी चाहिये।
गणगौर की कथा
कालान्तर में एक समय चैत्र माह की शुक्ल पक्ष के तृतीया तिथि के दिन माता पार्वती जी भगवान शिव से आज्ञा ग्रहण कर नदी में स्नान हेतु गयीं। स्नानोपरान्त पार्वती जी ने बालू से पार्थिव शिवलिङ्ग का निर्माण कर उनका विधि-विधान से पूजन किया। पूजन के दौरान पार्वती जी ने बालू से निर्मित पदार्थों का ही भोग लगाया तथा उन्हीं में से दो कणों का प्रसाद ग्रहण किया। अन्त में प्रदक्षिणा आदि कर पूजन सम्पन्न किया।
देवी पार्वती के श्रद्धापूर्वक पूजन से प्रसन्न होकर भगवान भोलेनाथ उस पार्थिव शिवलिङ्ग प्रकट हुये तथा माता पार्वती को वरदान देते हुये बोले, “आज के दिन जो भी स्त्री मेरा पूजन तथा तुम्हारा व्रत करेगी उसका पति चिरन्जीवी एवं दीर्घायु होगा तथा सुखी जीवन व्यतीत कर अन्त में मोक्ष गति को प्राप्त होगा। माता पार्वती को यह वर प्रदान कर भगवान शिव वहाँ से अन्तर्ध्यान हो गये।
पार्थिव शिवलिङ्ग पूजन सम्पन्न करते हुये लौटने में देवी पार्वती को बहुत विलम्ब हो गया। पार्वती जी नदी से लौटकर भगवान शिव के समक्ष आयीं, वहाँ देवर्षि नारद जी भी उपस्थित थे। भगवान शिव ने देवी पार्वती से उनके विलम्ब से आने का कारण पूछा। शिव जी के प्रश्न करने पर माता पार्वती कहा कि, “नदी के तट पर मुझे मेरे भाई-भौजाई आदि कुटुम्बीजन मिल गये थे। वह मुझसे दूध-भात ग्रहण करने तथा विश्राम करने का हठपूर्वक आग्रह करने लगे। उनका आग्रह स्वीकार कर में वही प्रसाद ग्रहण करके आ रही हूँ।”
भगवान शिव लीला करने हेतु कहते हैं कि, “मुझे भी दूध-भात भोग ग्रहण करना है।” तथा शिव जी नदी के तट की ओर चल दिये। माता पार्वती मन ही मन भगवान भोलेनाथ शिव जी से प्रार्थना करने लगीं, “हे भोलेनाथ! यदि मैं आपकी अनन्य पतिव्रता हूँ तो इस समय मेरी लाज रख लीजिये नाथ!, मेरे वचनों की रक्षा कीजिये प्रभु!”
माता पार्वती मन ही मन इस अन्तर्द्वन्द में उलझी भगवान शिव के पीछे-पीछे चल ही रही थीं कि, नदी के तट पर उन्हें विशाल एवं भव्य महल दिखायी दिया। महल में प्रवेश करने पर माता पार्वती के भाई- भौजाई आदि सभी कुटुम्ब सहित वहाँ उपस्थित थे। उन सभी ने भगवान शिव का भव्य रूप से स्वागत-सत्कार किया तथा नाना प्रकार से उनकी स्तुति करने लगे। उनकी आवभगत से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने दो दिवस तक उस महल में निवास किया। तब तीसरे दिन माता पार्वती शिव जी से प्रस्थान करने हेतु आग्रह करने लगीं। किन्तु भगवान शिव अधिक समय उस महल में निवास करना चाहते थे। अतः माता पार्वती ने अकेले ही वहाँ से प्रस्थान कर दिया। अन्ततः शिव जी भी देवर्षि नारद सहित पार्वती जी के पीछे-पीछे चल दिये।
चलते-चलते बहुत दूर आ जाने पर भगवान शिव को अकस्मात स्मरण हुआ कि वह अपनी माला तो पार्वती जी के ससुराल में ही भूल आये हैं। यह सुनकर माता पार्वती जी तुरन्त ही माला लेने के लिये जाने लगीं किन्तु भगवान शिव ने उन्हें रोकते हुये देवर्षि नारद जी को माला लाने की आज्ञा दी। नारद जी ने नदी के तट पर पहुँचने के उपरान्त देखा कि वहाँ पर तो कोई महल ही नहीं है। अपितु उस स्थान पर एक सघन वन है, जिसमें नाना प्रकार के हिंसक पशु, जीव-जन्तु आदि विचरण कर रहे हैं। यह भीषण दृश्य देखकर देवर्षि नारद अचरज में पड़ गये तथा विचार करने लगे कि कहीं वह किसी अन्य स्थान पर तो नहीं आ गये। किन्तु भगवान शिव की लीला से उस स्थान पर भीषण बिजली कौंधी, जिसके देवर्षि नारद को एक वृक्ष पर भगवान शिव की माला लटकी हुयी दिखायी दी। देवर्षि उस माला को लेकर भगवान शिव के समक्ष उपस्थित हुये तथा आश्चर्यपूर्वक सम्पूर्ण वृत्तान्त शिव जी को कह सुनाया।
देवर्षि नारद ने भगवान शिव से कहा, “हे भोलेनाथ! यह आपकी कैसी विचित्र लीला है? उस स्थान पर न तो वह भव्य महल है और ना ही माता पार्वती के कुटुम्बीजन। अपितु वह स्थान तो हिँसक पशुओं से युक्त एक घनघोर वन में परिवर्तित हो चुका है। हे लीलाधर! कृपया मेरे मेरे आश्चर्य का निवारण करें।”
नारद जी को आश्चर्यचकित अवस्था में देख भगवान शिव मन्द-मन्द मुस्कुराते हुये बोले, “हे देवर्षि! यह मेरा कार्य नहीं है, यह तो देवी पार्वती की मायावी लीला है, जिसने आपको अचरज में डाल दिया है। देवी पार्वती अपनी पार्थिव शिवलिङ्ग पूजन को गोपनीय रखना चाहती थीं, इसीलिये उन्होंने सत्य छुपाया।”
भगवान शिव के वचनों को सुनकर माता पार्वती ने कहा, “हे स्वामी! मैं किस योग्य हूँ? यह तो आपकी ही कृपादृष्टि का ही फल है।
भगवान शिव एवं देवी पार्वती की लीला को देखकर देवर्षि नारद बोले, “हे माते! जगतजननी! आप पतिव्रताओं में सर्वोच्च हैं। आपके पतिव्रत के प्रभाव से ही यह लीला सम्पन्न हुयी है। सांसारिक स्त्रियों को आपके स्मरण मात्र से अटल सौभाग्य की प्राप्ति होती है। आपसे ही समस्त सिद्धियाँ उत्पन्न होती हैं तथा आप में ही विलीन हो जाती हैं। अतः आपके लिये यह लीला रचना क्षण भर का ही कार्य है। हे माँ! गुप्त पूजन साधारण पूजन से अधिक फलदायी एवं प्रभावशाली होता है।
अतः मैं यह आशीष प्रदान करता हूँ कि जो भी स्त्रियाँ गुप्त रूप से पति की पूजा अर्चना करके उनके निमित्त मङ्गलकामना करेंगी, भगवान शिव की कृपा से उन्हें दीर्घायु एवं उत्तम पति-पुत्रादि की प्राप्ति होगी।
गणगौर का लोकगीत
गौर गौर गोमती ईसर पूजे पार्वती
पार्वती का आला-गीला, गौर का सोना का टीका
टीका दे, टमका दे, बाला रानी बरत करयो
करता करता आस आयो वास आयो
खेरे खांडे लाडू आयो, लाडू ले बीरा ने दियो
बीरो ले मने पाल दी, पाल को मै बरत करयो
सन मन सोला, सात कचौला , ईशर गौरा दोन्यू जोड़ा
जोड़ ज्वारा, गेंहू ग्यारा, राण्या पूजे राज ने, म्हे पूजा सुहाग ने
राण्या को राज बढ़तो जाये, म्हाको सुहाग बढ़तो जाये,
कीड़ी- कीड़ी, कीड़ी ले, कीड़ी थारी जात है, जात है गुजरात है,
गुजरात्यां को पाणी, दे दे थाम्बा ताणी
ताणी में सिंघोड़ा, बाड़ी में भिजोड़ा
म्हारो भाई एम्ल्यो खेमल्यो, सेमल्यो सिंघाड़ा ल्यो
लाडू ल्यो, पेड़ा ल्यो सेव ल्यो सिघाड़ा ल्यो
झर झरती जलेबी ल्यो, हर-हरी दूब ल्यो गणगौर पूज ल्यो
इस प्रकार सोलह बार बोल कर अन्त में बोलें- एक-लो , दो-लो …… सोलह-लो।
गणगौर की गतिविधियाँ
चैत्र नवरात्रि के तीसरे दिन महिलायें सोलह श्रृंगार करके व्रत एवं पूजा करती हैं तथा सन्ध्याकाल में गणगौर की व्रत कथा को पढ़ती एवं सुनती हैं। इस दिन को बड़ी गणगौर के नाम से भी जाना जाता है। इस दिन नदी या सरोवर के समीप बालू से निर्मित माता गौरा की मूर्ति को जल पिलाया जाता है। इस पूजन के अगले दिन देवी का विसर्जन किया जाता है। जिस स्थान पर गणगौर पूजा की जाती है उस स्थान को गणगौर का पीहर या मायका तथा जिस स्थान पर विसर्जन होता है उसे ससुराल माना जाता है।
गणगौर पूजा के दिन महिलायें मैदा, बेसन अथवा आटे में हल्दी मिलाकर गहने बनाती हैं, जो माता पार्वती को अर्पित किये जाते हैं। इन गहनों को गुने कहा जाता है। मान्यताओं के अनुसार, बड़ी गणगौर के दिन स्त्रियाँ जितने गुने माता पार्वती को अर्पित करती हैं, उतना ही अधिक धन-वैभव कुटुम्ब में प्राप्त होता है। पूजन सम्पन्न होने के उपरान्त महिलायें गुने अपनी सास, ननद, देवरानी या जेठानी को दे देती हैं। कुछ विद्वानों के मतानुसार गुने शब्द गहने शब्द का ही अपभ्रंश हो गया है।
राजस्थान में गणगौर का पर्व 18 दिवसीय उत्सव के रूप में मनाया जाता है। वहाँ गणगौर उत्सव होलिका दहन के अगले दिन चैत्र कृष्ण प्रतिपदा से आरम्भ होकर चैत्र शुक्ल तृतीया को समाप्त होता है। राजस्थान में स्त्रियाँ इस दिन ईसर जी एवं गवरजा जी का पूजन करती हैं। पूजन के दौरान दूब घास से जल छिड़कते हुये “गोर गोर गोमती” नामक पारम्परिक गीत का गायन करती हैं।
स्थानीय मान्यताओं के अनुसार, माता गवरजा होली के दूसरे दिन अपने मायके आती हैं तथा अठारह दिनों के बाद ईसर जी उन्हें पुनः लेने के लिये आते हैं। चैत्र शुक्ल तृतीया को गवरजा जी की विदाई होती है।
राजस्थान सहित अन्य ग्रामीण क्षेत्रों में गणगौर की पूजा में गाये जाने वाले लोकगीत इस पर्व का आवश्यक अंग हैं। महिलाओं द्वारा गणगौर के गीतों के माध्यम से माता गवरजा को बड़ी बहन के तथा भगवान ईसर को जीजा जी के रूप में पूजा जाता है। राजस्थान के अनेक क्षेत्रों विवाह के समय आवश्यक रूप से गणगौर पूजन किया जाता है।
मध्यप्रदेश स्थित निमाड़ में गणगौर का त्यौहार अत्यधिक विशाल स्तर पर मनाया जाता है। गणगौर उत्सव के समापन पर अन्तिम दिन प्रत्येक गाँव में भण्डारा आयोजित किया जाता है। तदोपरान्त माता गवरजा की ईसर जी के साथ विदाई की जाती है।
॥ श्रीरस्तु ॥
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श्री हरि हरात्मक देवें सदा, मुद मंगलमय हर्ष।
सुखी रहे परिवार संग, अपना भारतवर्ष ॥
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संकलनकर्ता –
श्रद्धेय पंडित विश्वनाथ द्विवेदी ‘वाणी रत्न’
संस्थापक, अध्यक्ष एवं प्रबंध निदेशक
(‘हरि हर हरात्मक’ ज्योतिष)
संपर्क सूत्र – 07089434899
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