“ॐ हरि हर नमो नमःॐ”
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विष्णुपुराण, शिवपुराण, ब्रम्हपुराण, भविष्यपुराण इत्यादि के अनुसार भगवान श्री कृष्ण का जन्म भाद्रपद कृष्ण अष्टमी बुधवार को रोहिणी नक्षत्र में अर्धरात्रि के समय हुआ था। अधिकांश उपासक उपरोक्त योगों का मेल अपने-अपने तरीके से ग्रहण करते है इससे इस व्रत को लेकर सर्वाधिक मत-भेद सामने आते हैं। शास्त्रों में इसके शुद्धा, सप्तमी विद्धा, नवमी विद्धा, समा, न्यूना, अधिा इत्यादि से अठारह प्रकार के भेद हैं। श्री कृष्ण की जन्म स्थली मथुरा-वृन्दावन में श्रीकृष्ण जन्मोत्सव, व्रतादि प्रायः उदयकालिक अष्टमी (नवमी युक्ता अष्टमी) में ही मनाया जाता है। यह वैष्णव मत भी है।
भक्त लोग, जो जन्माष्टमी का व्रत करते हैं, जन्माष्टमी के एक दिन पूर्व केवल एक ही समय भोजन करते हैं। व्रत वाले दिन, स्नान आदि से निवृत्त होने के पश्चात, भक्त लोग पूरे दिन उपवास रखकर, अगले दिन रोहिणी नक्षत्र और अष्टमी तिथि के समाप्त होने के पश्चात व्रत कर पारण का संकल्प लेते हैं। कुछ कृष्ण-भक्त मात्र रोहिणी नक्षत्र अथवा मात्र अष्टमी तिथि के पश्चात व्रत का पारण कर लेते हैं। संकल्प प्रातः काल के समय लिया जाता है और संकल्प के साथ ही अहोरात्र का व्रत प्रारम्भ हो जाता है। जन्माष्टमी के दिन, श्री कृष्ण पूजा निशीथ समय पर की जाती है। वैदिक समय गणना के अनुसार निशीथ मध्यरात्रि का समय होता है। निशीथ समय पर भक्त लोग श्री बालकृष्ण की पूरे विधि-विधान से पूजा-अर्चना करते हैं। विस्तृत विधि-विधान पूजा में षोडशोपचार पूजा के सभी सोलह (१६) चरण सम्मिलित होते हैं। जन्माष्टमी की विस्तृत पूजा विधि, वैदिक मन्त्रों के साथ जन्माष्टमी पूजा विधि पृष्ठ पर उपलब्ध है।
कृष्ण जन्माष्टमी पर व्रत के नियम
एकादशी उपवास के दौरान पालन किये जाने वाले सभी नियम जन्माष्टमी उपवास के दौरान भी पालन किये जाने चाहिये। अतः जन्माष्टमी के व्रत के दौरान किसी भी प्रकार के अन्न का ग्रहण नहीं करना चाहिये। जन्माष्टमी का व्रत अगले दिन सूर्योदय के बाद एक निश्चित समय पर तोड़ा जाता है जिसे जन्माष्टमी के पारण समय से जाना जाता है।
जन्माष्टमी का पारण सूर्योदय के पश्चात अष्टमी तिथि और रोहिणी नक्षत्र के समाप्त होने के बाद किया जाना चाहिये। यदि अष्टमी तिथि और रोहिणी नक्षत्र सूर्यास्त तक समाप्त नहीं होते तो पारण किसी एक के समाप्त होने के पश्चात किया जा सकता है। यदि अष्टमी तिथि और रोहिणी नक्षत्र में से कोई भी सूर्यास्त तक समाप्त नहीं होता तब जन्माष्टमी का व्रत दिन के समय नहीं तोड़ा जा सकता। ऐसी स्थिति में व्रती को किसी एक के समाप्त होने के बाद ही व्रत तोड़ना चाहिये।
अतः अष्टमी तिथि और रोहिणी नक्षत्र के अन्त समय के आधार पर कृष्ण जन्माष्टमी का व्रत दो सम्पूर्ण दिनों तक प्रचलित हो सकता है। हिन्दु ग्रन्थ धर्मसिन्धु के अनुसार, जो श्रद्धालु-जन लगातार दो दिनों तक व्रत करने में समर्थ नहीं है, वो जन्माष्टमी के अगले दिन ही सूर्योदय के पश्चात व्रत को तोड़ सकते हैं।
कृष्ण जन्माष्टमी को कृष्णाष्टमी, गोकुलाष्टमी, अष्टमी रोहिणी, श्रीकृष्ण जयन्ती और श्री जयन्ती के नाम से भी जाना जाता है।
कृष्ण जन्माष्टमी के दो अलग-अलग दिनों के विषय में – अधिकतर कृष्ण जन्माष्टमी दो अलग-अलग दिनों पर हो जाती है। जब-जब ऐसा होता है, तब पहले दिन वाली जन्माष्टमी स्मार्त सम्प्रदाय के लोगो के लिये और दूसरे दिन वाली जन्माष्टमी वैष्णव सम्प्रदाय के लोगो के लिये होती है।
प्रायः उत्तर भारत में श्रद्धालु स्मार्त और वैष्णव जन्माष्टमी का भेद नहीं करते और दोनों सम्प्रदाय जन्माष्टमी एक ही दिन मनाते हैं। हमारे विचार में यह सर्वसम्मति इस्कॉन संस्थान की वजह से है। “कृष्ण चेतना के लिए अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय संस्था, जिसे इस्कॉन के नाम से अच्छे से जाना जाता है, वैष्णव परम्पराओं और सिद्धान्तों के आधार पर निर्माणित की गयी है। अतः इस्कॉन के ज्यादातर
अनुयायी वैष्णव सम्प्रदाय के लोग होते हैं।
इस्कॉन संस्था सर्वाधिक व्यावसायिक और वैश्विक धार्मिक संस्थानों में से एक है जो इस्कॉन संस्कृति को बढ़ावा देने के लिये अच्छा-खासा धन और संसाधन खर्च करती है। अतः इस्कॉन के व्यावसायिक प्रभाव और विज्ञापिता की वजह से अधिकतर श्रद्धालु-जन इस्कॉन द्वारा चयनित जन्माष्टमी को मनाते हैं। जो श्रद्धालु वैष्णव सम्प्रदाय के अनुयायी नहीं हैं वो इस बात से अनभिज्ञ हैं कि इस्कॉन की परम्पराएँ भिन्न होती है और जन्माष्टमी उत्सव मनाने का सबसे उपयुक्त दिन इस्कॉन से अलग भी हो सकता है। स्मार्त अनुयायी, जो स्मार्त और वैष्णव सम्प्रदाय के अन्तर को जानते हैं, वे जन्माष्टमी व्रत के लिये इस्कॉन द्वारा निर्धारित दिन का अनुगमन नहीं करते हैं। दुर्भाग्यवश ब्रज क्षेत्र, मथुरा और वृन्दावन में, इस्कॉन द्वारा निर्धारित दिन का सर्वसम्मति से अनुगमन किया जाता है। श्रद्धालु जो दूसरों को देखकर जन्माष्टमी के दिन का अनुसरण करते हैं वो इस्कॉन द्वारा निर्धारित दिन को ही उपयुक्त मानते हैं।
लोग जो वैष्णव सम्प्रदाय के अनुयायी नहीं होते हैं, वो स्मार्त सम्प्रदाय के अनुयायी होते हैं। स्मार्त अनुयायियों के लिये, हिन्दु ग्रन्ध धर्मसिन्धु और निर्णयसिन्धु में, जन्माष्टमी के दिन को निर्धारित करने के लिये स्पष्ट नियम हैं। श्रद्धालु जो वैष्णव सम्प्रदाय के अनुयायी नहीं हैं, उनको जन्माष्टमी के दिन का निर्णय हिन्दु ग्रन्ध में बताये गये नियमों के आधार पर करना चाहिये। इस अन्तर को समझने के लिए एकादशी उपवास एक अच्छा उदाहरण है। एकादशी के व्रत को करने के लिये, स्मार्त और वैष्णव सम्प्रदायों के अलग-अलग नियम होते हैं। ज्यादातर श्रद्धालु एकादशी के अलग-अलग नियमों के बारे में जानते हैं परन्तु जन्माष्टमी के अलग-अलग नियमों से अनभिज्ञ होते हैं। अलग-अलग नियमों की वजह से, न केवल एकादशी के दिनों बल्कि जन्माष्टमी और राम नवमी के दिनों में एक दिन का अन्तर होता है।
वैष्णव सम्प्रदाय को मानने वाले लोग अष्टमी तिथि और रोहिणी नक्षत्र को प्राथमिकता देते हैं और वे कभी सप्तमी तिथि के दिन जन्माष्टमी नहीं मनाते हैं। वैष्णव नियमों के अनुसार हिन्दु कैलेण्डर में जन्माष्टमी का दिन अष्टमी अथवा नवमी तिथि पर ही पड़ता है।
जन्माष्टमी का दिन तय करने के लिये, स्मार्त सम्प्रदाय द्वारा अनुगमन किये जाने वाले नियम अधिक जटिल होते हैं। इन नियमों में निशिता काल को, जो कि हिन्दु अर्धरात्रि का समय है, को प्राथमिकता दी जाती है। जिस दिन अष्टमी तिथि निशिता काल के समय व्याप्त होती है, उस दिन को प्राथमिकता दी जाती है। इन नियमों में रोहिणी नक्षत्र को सम्मिलित करने के लिये कुछ और नियम जोड़े जाते हैं। जन्माष्टमी के दिन का अन्तिम निर्धारण निशिता काल के समय, अष्टमी तिथि और रोहिणी नक्षत्र के शुभ संयोजन, के आधार पर किया जाता है। स्मार्त नियमों के अनुसार हिन्दु कैलेण्डर में जन्माष्टमी का दिन हमेशा सप्तमी अथवा अष्टमी तिथि के दिन पड़ता है।
॥ श्रीरस्तु ॥
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श्री हरि हरात्मक देवें सदा, मुद मंगलमय हर्ष।
सुखी रहे परिवार संग, अपना भारतवर्ष ॥
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संकलनकर्ता –
पंडित हर्षित द्विवेदी
(‘हरि हर हरात्मक’ ज्योतिष)
संपर्क सूत्र – 07089434899
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