मनोवांछित जीवन संगिनी से शीघ्र विवाह हेतु अवश्य करेंगन्धर्वराज विश्वावसु की उपासना

mantra of Gandharvaraj of Vishwavasu marriage Hari Har Haratmak

शीघ्र विवाह हेतु गन्धर्व-राज विश्वावसु की पूजा पद्धति

गन्धर्व-राज विश्वावसु की उपासना मुख्यतः ‘वशीकरण’ और ‘विवाह’ के लिये की जाती है। स्त्री-वशीकरण और विवाह के लिये इनके प्रयोग अमोघ है।

“ॐ हरि हर नमो नमःॐ
❀꧁○꧂❀


प्रयोग विधि एवं पुरश्चरण विधि

(मन्त्र का १ लाख जप, अयुत (१०,०००) हवन घृत-मिश्रित लाजा से, सहस्त्र (१०००) तर्पण
शत (१००) मार्जन, दश (१०) ब्राह्मण भोजन)

(१) कल्पतरु के नीचे मणि-मण्डप में सिंहासन पर बैठे हुए, गन्धर्व-राज-विश्वावसु का ध्यान करते हुए जलाञ्जलि देकर, नित्य १०८ जप करने से एक मास में उत्तम आभूषणों से सुसज्जित ‘कन्या’ की प्राप्ति होती है।
(२) जल के किनारे, इक्षु-क्षेत्र (गन्ने के खेत) अथवा कदली (केला) वन में मन्त्र का यथा-शक्ति जप तथा दशांश हवन-तिल और पायस से करने पर अभीष्ट कन्या प्राप्त होती है। यह १ मास का प्रयोग है।
(३) शाल-वृक्ष की लकड़ी की ११ अंगुल की कील १००८ बार अभिमन्त्रित कर, अभीष्ट कन्या के घर में रखने से वह कन्या प्राप्त होती है।
(४) मन्त्र में से ‘अमुकी’ पद अलग करके ‘जप’ करने से सबका आकर्षण होता है।

(सर्वप्रथम  आचमन पवित्रीकरण, शान्तिपाठ, गौरी गणेश स्मरण करें। तदनन्तर संकल्प लेवें)

मंङ्गलाचरणम्, पवित्रीकरणम्, आचमन, संकल्प, स्वस्तिवाचन, दिक् रक्षण, एवम् मानसिक पूजन सहित…..पढें

अथ् संकल्प

ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य अद्य श्रीब्रह्मणो द्वितीये परार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे सप्तमे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविशतितमे युगे कलियुगे कलिप्रथमचणे भूर्लोके भारतवर्षे जम्बूद्विपे भरतखण्डे आर्यावर्तान्तर्गतब्रह्मावर्तस्य ••••अमुक•••• देशे पुण्यप्रदेशे गंगायमुनयोः ••••अमुक•••• दिग्भागे ••••अमुक•••• क्षेत्रे ••••अमुक•••• मण्डलान्तर्गते ••••अमुक•••• जनपदे ••••अमुक•••• ग्रामे देवद्विजगवां चरण सन्निधावास्मिन् श्रीमन्नृपतिवीरविक्रमादित्य समयतो ••••अमुक•••• संख्या परिमिते प्रवर्त्तमानसंवत्सरे प्रभवादिषष्ठि संवत्सराणां मध्ये ••••अमुक•••• नामसंवत्सरे, श्री सूर्य ••••अमुक•••• अयने ••••अमुक•••• ऋतौ, महामांङ्गल्यप्रदे मासानाम् उत्तमे ••••अमुक•••• मासे, ••••अमुक•••• पक्षे, ••••अमुक•••• तिथौ, ••••अमुक•••• वासरे, ••••अमुक•••• नक्षत्रे, ••••अमुक•••• योगे, ••••अमुक•••• करणे, ••••अमुक•••• राशिस्थिते चन्द्रे, ••••अमुक•••• राशिस्थिते श्रीसूर्ये, ••••अमुक•••• राशिस्थिते देवगुरौ शेषेशु ग्रहेषु यथायथा राशिस्थानस्थितेषु सत्सु एवं ग्रहगुणविशेषणविशिष्टायां शुभपुण्यतिथौ ••••अमुक•••• गोत्रोत्पन्नस्य ••••अमुक•••• शर्मणः (वर्मणः, गुप्तस्य वा) अहं ममोपात्तदुरितक्षयपूर्वकं श्री श्री विश्वावसु गन्धर्व राज देवता प्रीत्यर्थं ••••अमुक•••• कामनया ब्राह्मणद्वारा कृतस्य ••••अमुक•••• मन्त्रपुरश्चरणस्य सङ्गतासिद्धयर्थम ••••अमुक•••• संख्यया परिमितजपदशांश-होम-तद्दशांशतर्पण-तद्दशांश-ब्राह्मण-भोजन रूपं शुभ संकल्पित कर्म करिष्ये।

इसे भी पढें….श्री गणपति भगवती गौरी पूजन

(संकल्पित होकर श्री गणेशसहित निर्मित वेदी मण्डल एवं प्रधानदेवता का विधिवत आवाहन प्रतिस्थापन पूजनादि करके जाप करें)


अथ् मन्त्र जाप विधि प्रकरण


अथ् विनियोगः

ॐ अस्य श्री विश्वावसु-गन्धर्व-राज-मन्त्रस्य श्रीरुद्र-ऋषिः, अनुष्टुप छन्दः, श्रीविश्वावसु-गन्धर्व-राजः देवता, ह्रीं बीजं, स्वाहा शक्तिः, विश्वावसु-गन्धर्व-राज प्रीति-पूर्वक ममाभिलाषितां अमुकीं कन्यां प्राप्तयर्थे जपे विनियोगः॥

अथ् ऋष्यादि-न्यासः

(१) श्रीरुद्र-ऋषये नमः – शिरसि॥
(२) अनुष्टुप छन्दसे नमः – मुखे॥
(३) श्रीविश्वावसु-गन्धर्व-राजः देवतायै नमः – हृदि॥
(४) ह्रीं बीजाय नमः – गुह्ये॥
(५) स्वाहा शक्तये नमः – पादयोः॥
(६) विश्वावसु-गन्धर्व-राज प्रीति-पूर्वकं ममाभिलाषितां अमुकीं कन्यां प्राप्तयर्थे जपे विनियोगाय नमः – सर्वाङ्गे॥

अथ् कराङ्ग-न्यासः

(१) ॐ ह्रां – अंगुष्ठाभ्यां नमः॥
(२) ॐ ह्रीं – तर्जनीभ्यां नमः॥
(३) ॐ ह्रूं – मध्यमाभ्यां नमः॥
(४) ॐ ह्रैं – अनामिकाभ्यां नमः॥
(५) ॐ ह्रौं – कनिष्ठिकाभ्यां नमः॥
(६) ॐ ह्रः – करतल-कर-पृष्ठाभ्यां नमः॥

षडङ्ग-न्यासः

(१) ॐ ह्रां – हृदयाय नमः॥
(२) ॐ ह्रीं – शिरसे स्वाहा॥
(३) ॐ ह्रूं – शिखायै वषट्॥
(४) ॐ ह्रैं – कवचाय हुं॥
(५) ॐ ह्रौं – नेत्र-त्रयाय वौषट्॥
(६) ॐ ह्रः – अस्त्राय फट्॥

पुनः कराङ्ग-न्यासः

(१) ॐ ह्रां – ॐ विश्वावसु – अंगुष्ठाभ्यां नमः॥
(२) ॐ ह्रीं – गन्धर्व-राज – तर्जनीभ्यां नमः॥
(३) ॐ ह्रूं – कन्या-सहस्त्रमावृत – मध्यमाभ्यां नमः॥
(४) ॐ ह्रैं – ममाभिलाषितां – अनामिकाभ्यां नमः॥
(५) ॐ ह्रौं – अमुकीं कन्यां – कनिष्ठिकाभ्यां नम॥
(६) ॐ ह्रः – प्रयच्छ स्वाहा – करतल-कर-पृष्ठाभ्यां नमः॥

इसी क्रम से ‘षडङ्ग-न्यास’ करके ‘दिग्-बन्धन’ करें। यथा-

दिग्-बन्धनम्

‘ॐ भूर्भुवः स्वः ॐ’ (मन्त्र से ‘दिग्-बन्धन करें)

“ॐ रां रं रं तेजोज्ज्वलप्रकाशाय नमः” (मन्त्र से अपने चारों ओर तीन अग्नि-प्राकारों का ध्यान करें)

(फिर मूल-मन्त्र से तीन, पाँच या सात बार व्यापक न्यास करें, और फिर अपने शरीर में पीठ-न्यास करें)

अथ् पीठ-न्यासः

(०१) मं मण्डूकाय नमः – मूलाधारे॥
(०२) कां कालाग्नि-रुद्राय नमः – स्वाधिष्ठाने॥
(०३) कं कच्छपाय नमः – हृदये॥
(०४) आं आधार-शक्तये नमः – हृदये॥
(०५) कं कूर्माय नमः – हृदये॥
(०६) धं धरायै नमः – हृदये॥
(०७) क्षीं क्षीर-सागराय नमः – हृदये॥
(०८) श्वें श्वेत-द्वीपाय नमः – हृदये॥
(०९) कं कल्प-वृक्षाय नमः – हृदये॥
(१०) मं मणि-प्राकाराय नमः – हृदये॥
(११) हें हेम-पीठाय नमः – हृदये॥
(कच्छप से हेम-पीठ तक का न्यास हृदय में होगा)
(१२) धं धर्माय नमः दक्ष स्कन्धे॥
(१३) ज्ञां ज्ञानाय नमः वाम-स्कन्धे॥
(१४) वैं वैराग्याय नमः दक्ष-जानुनि॥
(१५) ऐं ऐश्वर्याय नमः वाम-जानुनि॥
(१६) अं अधर्माय नमः मुखे॥
(१७) अं अज्ञानाय नमः वाम-पार्श्वे॥
(१८) अं अवैराग्याय नमः नाभौ॥
(१९) अं अनैश्वर्याय नमः दक्ष-पार्श्वे॥

हृदयादिन्यासः

(निम्न सभी मन्त्रों का हृदय में न्यास करें)

(०१) अं – अनन्ताय नमः॥
(०२) चं – चतुर्विंशति-तत्त्वेभ्यो नमः॥
(०३) पं – पद्माय नमः॥
(०४) आं – आनन्द-कन्दाय नमः॥
(०५) सं – सम्विन्नालाय नमः॥
(०६) विं – विकार-मय-केसरेभ्यो नमः॥
(०७) प्रं – प्रकृत्यात्मक-पत्रेभ्यो नमः॥
(०८) पञ्चाशद्-वर्णाढ्य-कर्णिकायै नमः॥
(०९) सं – सूर्य-मण्डलाय नमः॥
(१०) चं – चन्द्र-मण्डलाय नमः॥
(११) वैं – वैश्वानर-मण्डलाय नमः॥
(१२) सं – सत्त्वाय नमः॥
(१३) रं – रजसे नमः॥
(१४) तं – तमसे नमः॥
(१५) आं – आत्मने नमः॥
(१६) अं – अन्तरात्मने नमः॥
(१७) पं – परमात्मने नमः॥
(१८) ज्ञां – ज्ञानात्मने नमः॥
(१९) मां – माया-तत्त्वात्मने नमः॥
(२०) कं – कला-तत्त्वात्मने नमः॥
(२१) विं – विद्या-तत्त्वात्मने नमः॥
(२२) पं – पर-तत्त्वात्मने नमः॥

पीठशक्त्यादिन्यासः

(हृदयस्थ अष्ट-दल में प्रादक्षिण्य-क्रम से और मध्य में पीठ-शक्तियों का न्यास करें)

कां – कान्त्यै नमः॥
प्रं – प्रभायै नमः॥
रं – रमायै नमः॥
विं – विद्यायै नमः॥
मं – मदनायै नमः॥
मं – मदनातुरायै नमः॥
रं – रंभायै नमः॥
मं – मनोज्ञायै नमः॥
ह्रीं सर्व-शक्ति-कमलासनाय-कर्णिकायै नमः॥

(अब हृदयस्थ पीठ पर ‘ध्यान’ करें)

अथ् ध्यान मन्त्रः

कन्या-समूहैर्युव-चित्त-हारारुपै परितं उप-केतु-रुपम्।
अम्भोज-ताम्बूल-करं युवानं गन्धर्व-पौढां वने स्मरामि॥

ध्याये दिव्यं वर्त्ते रम्ये, तयवानमति-सुन्दरम्। सेवितं कन्यका-वृन्दैः सुन्दरैः भूषितां सदा॥
मुक्ता-हार-लसत्-पाणिः, पङ्जैरति-शोभनैः।
लीला-गृहित-कमलैर्मधुरालाप-कारिभिः॥

(उपर्युक्त दो ध्यानों में से कोई भी एक ध्यान करके निम्नलिखित ‘मानसिक-पूजन’ करके जप आरम्भ करें।
अथवा विस्तृत षोडशोपचार पूजन विधि के लिए इस नंबर पर संपर्क करें – (07089434899) यथा…

मानसिक पूजनम्

(१) ॐ लं पृथ्वीतत्त्वात्मकं गन्धं – श्री विश्वावसुगन्धर्वराजाय विलेपयामि नमः॥ (अधो-मुख कनिष्ठा एवं अंगुष्ठ से)
(२) ॐ हं आकाश-तत्त्वात्मकं पुष्पं – श्री विश्वावसु-गन्धर्व-राजाय समर्पयामि नमः॥ (अधो-मुख तर्जनी एवं अंगुष्ठ से)
(३) ॐ यं वायु-तत्त्वात्मकं धूपं – श्री विश्वावसु-गन्धर्व-राजाय आघ्रापयामि नमः॥ (अधो-मुख तर्जनी एवं अंगुष्ठ मिलाकर वाम-स्तन पर १० बार भावना से धूम-पात्र रखे)
(४) ॐ रं तेजस्तत्त्वात्मकं दीपं – श्री विश्वावसु-गन्धर्व-राजाय दर्शयामि नमः॥ (उर्ध्व-मुख मध्यमा एवं अंगुष्ठ मिलाकर, दक्ष-स्तन पर १० बार भावना से दीप-पात्र रखे)
(५) ॐ वं अमृत-तत्त्वात्मकं नैवेद्यं – श्री विश्वावसु-गन्धर्व-राजाय निवेदयामि नमः॥ (उर्ध्व-मुख अनामिका एवं अंगुष्ठ से)
(६) ॐ शं शक्त्यात्मकं ताम्बूलादिकं – श्री विश्वावसु-गन्धर्व-राजाय निवेदयामि नमः॥ (उर्ध्व-मुख सभी अँगुलियों से)

इस प्रकार पूजन करके कमल (पद्म), ताम्बूल और योनि-मुद्रा प्रदर्शित कर, निम्न मन्त्र का संकल्पित संख्यात्मक जाप करें।

अथ् जपेन् मन्त्रः

(मन्त्र में से ‘अमुकी’ पद अलग करके कन्या का नाम और गोत्र उच्चारण कर ‘जप’ करने से कन्या का आकर्षण होता है और उसी से विवाह होता है)

“ॐ विश्वावसु-गन्धर्व-राज-कन्या-सहस्त्रमावृत, ममाभिलाषितां अमुकीं कन्यां प्रयच्छ स्वाहा।”

(संकल्पित संख्यात्मक जाप करने के पश्चात निम्नलिखित कवच का एक बार पाठ करें)


अथ् श्री विश्वावसु गन्धर्वराज कवच स्तोत्रम्


प्रणाम-मन्त्र

ॐ श्रीगणेशाय नमः, ॐ श्रीगणेशाय नमः ॐ श्रीगणेशाय नमः॥
ॐ श्रीसप्त-श्रृंग-निवासिन्यै नमः, ॐ श्रीसप्त-श्रृंग-निवासिन्यै नमः, ॐ श्रीसप्त-श्रृंग-निवासिन्यै नमः॥
ॐ श्रीविश्वावसु-गन्धर्व-राजाय कन्याभिः परिवारिताय नमः, ॐ श्रीविश्वावसु-गन्धर्व-राजाय कन्याभिः परिवारिताय नमः, ॐ श्रीविश्वावसु-गन्धर्व-राजाय कन्याभिः परिवारिताय नमः॥

ॐ नमस्कृत्य महादेवं, सर्वज्ञं परमेश्वरम्॥

श्री पार्वत्युवाचः

भगवन् देव-देवेश, शंकर परमेश्वर।
कथ्यतां मे परं स्तोत्रं, कवचं कामिनां प्रियम्॥

जप-मात्रेण यद्वश्यं, कामिनी-कुल-भृत्यवत्।
कन्यादि-वश्यमाप्नोति, विवाहाभीष्ट-सिद्धिदम्॥

भग-दुःखैर्न बाध्येत, सर्वैश्वर्यमवाप्नुयात्॥

श्रीईश्वरोवाचः

अधुना श्रुणु देवशि ! कवचं सर्व-सिद्धिदं।
विश्वावसुश्च गन्धर्वो, भक्तानां भग-भाग्यदः॥

कवचं तस्य परमं, कन्यार्थिणां विवाहदं।
जपेद् वश्यं जगत् सर्वं, स्त्री-वश्यदं क्षणात्॥

भग-दुःखं न तं याति, भोगे रोग-भयं नहि।
लिंगोत्कृष्ट-बल-प्राप्तिर्वीर्य-वृद्धि-करं परम्॥

महदैश्वर्यमवाप्नोति, भग-भाग्यादि-सम्पदाम्।
नूतन-सुभगं भुक्तवा, विश्वावसु-प्रसादतः॥

विनियोगः

ॐ अस्यं श्री विश्वावसु-गन्धर्व-राज-कवच-स्तोत्र-मन्त्रस्य विश्व-सम्मोहन वाम-देव ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः, श्रीविश्वावसु-गन्धर्व-राज-देवता, ऐं क्लीं बीजं, क्लीं श्रीं शक्तिः, सौः हंसः ब्लूं ग्लौं कीलकं, श्रीविश्वावसु-गन्धर्व-राज-प्रसादात् भग-भाग्यादि-सिद्धि-पूर्वक-यथोक्त॒पल-प्राप्त्यर्थे जपे विनियोगः॥

ऋष्यादि-न्यासः

विश्वसम्मोहन वामदेव ऋषये नमः – शिरसि॥
अनुष्टुप् छन्दसे नमः – मुखे॥
श्रीविश्वावसु-गन्धर्व-राज-देवतायै नमः – हृदि॥
ऐं क्लीं बीजाय नमः – गुह्ये॥
क्लीं श्रीं शक्तये नमः – पादयो॥
सौः हंसः ब्लूं ग्लौं कीलकाय नमः – नाभौ॥
श्रीविश्वावसु-गन्धर्व-राज-प्रसादात् भग-भाग्यादि-सिद्धि-पूर्वक-यथोक्त॒पल-प्राप्त्यर्थे जपे विनियोगाय नमः – सर्वांगे॥

षडङ्गन्यास – करन्यास – अंगन्यास

(तीनों प्रकार के न्यास निम्न मन्त्रों से करें)

ॐ क्लीं ऐं क्लीं – अंगुष्ठाभ्यां नमः॥
ॐ क्लीं श्रीं गन्धर्वराजाय क्लीं – तर्जनीभ्यां नमः॥
ॐ क्लीं कन्यादानरतोद्यमाय क्लीं – मध्यमाभ्यां नमः॥
ॐ क्लीं धृत-कह्लारमालाय क्लीं – अनामिकाभ्यां नमः॥
ॐ क्लीं भक्तानां भगभाग्यादिवरप्रदानाय – कनिष्ठिकाभ्यां नमः॥
ॐ क्लीं सौः हंसः ब्लूं ग्लौं क्लीं – करतल करपृष्ठाभ्यां नमः॥

ॐ क्लीं ऐं क्लीं – हृदयाय नमः॥
ॐ क्लीं श्रीं गन्धर्वराजाय क्लीं – शिरसे स्वाहा॥
ॐ क्लीं कन्यादानरतोद्यमाय क्लीं – शिखायै वषट्॥
ॐ क्लीं धृत-कह्लारमालाय क्लीं – कवचाय हुम्॥
ॐ क्लीं भक्तानां भगभाग्यादिवरप्रदानाय – नेत्र-त्रयाय वौषट्॥
ॐ क्लीं सौः हंसः ब्लूं ग्लौं क्लीं – अस्त्राय फट्॥

मन्त्रः

ॐ क्लीं विश्वावसु-गन्धर्व-राजाय नमः ॐ ऐं क्लीं सौः हंसः सोहं ऐं ह्रीं क्लीं श्रीं सौः ब्लूं ग्लौं क्लीं विश्वावसु-गन्धर्व-राजाय कन्याभिः परिवारिताय कन्या-दान-रतोद्यमाय धृत-कह्लार-मालाय भक्तानां भग-भाग्यादि-वर-प्रदानाय सालंकारां सु-रुपां दिव्य-कन्या-रत्नं मे देहि-देहि, मद्-विवाहाभीष्टं कुरु-कुरु, सर्व-स्त्री वशमानय, मे लिंगोत्कृष्ट-बलं प्रदापय, मत्स्तोकं विवर्धय-विवर्धय, भग-लिंग-रोगान् अपहर, मे भग-भाग्यादि-महदैश्वर्यं देहि-देहि, प्रसन्नो मे वरदो भव, ऐं क्लीं सौः हंसः सोहं ऐं ह्रीं क्लीं श्रीं सौं ब्लूं ग्लौं क्लीं नमः स्वाहा॥ (२०० अक्षर, १२ बार जपें)

श्री विश्वावसु गन्धर्वराज गायत्री मन्त्रः

ॐ क्लीं गन्धर्व-राजाय विद्महे कन्याभिः परिवारिताय धीमहि तन्नो विश्वावसु प्रचोदयात् क्लीं॥ (१० बार जपें)

ध्यानम्

क्लीं कन्याभिः परिवारितं, सु-विलसत् कह्लार-माला-धृतन्,
स्तुष्टयाभरण-विभूषितं, सु-नयनं कन्या-प्रदानोद्यमम्।
भक्तानन्द-करं सुरेश्वर-प्रियं मुथुनासने संस्थितम्,
स्रातुं मे मदनारविन्द-सुमदं विश्वावसुं मे गुरुम् क्लीं॥

अथ् कवच मूल पाठम्

क्लीं कन्याभिः परिवारितं, सु-विलसत् माला-धृतन्-
स्तुष्टयाभरण-विभूषितं, सु-नयनं कन्या-प्रदानोद्यमम्।
भक्तानन्द-करं सुरेश्वर-प्रियं मिथुनासने संस्थितं,
त्रातुं मे मदनारविन्द-सुमदं विश्वावसुं मे गुरुम् क्लीं॥१॥

क्लीं विश्वावसु शिरः पातु, ललाटे कन्यकाऽधिपः।
नेत्रौ मे खेचरो रक्षेद्, मुखे विद्या-धरं न्यसेत् क्लीं॥२॥

क्लीं नासिकां मे सुगन्धांगो, कपोलौ कामिनी-प्रियः।
हनुं हंसाननः पातु, कटौ सिंह-कटि-प्रियः क्लीं॥३॥

क्लीं स्कन्धौ महा-बलो रक्षेद्, बाहू मे पद्मिनी-प्रियः।
करौ कामाग्रजो रक्षेत्, कराग्रे कुच-मर्दनः क्लीं॥४॥

क्लीं हृदि कामेश्वरो रक्षेत्, स्तनौ सर्व-स्त्री-काम-जित्।
कुक्षौ द्वौ रक्षेद् गन्धर्व, ओष्ठाग्रे मघवार्चितः क्लीं॥५॥

क्लीं अमृताहार-सन्तुष्टो, उदरं मे नुदं न्यसेत्।
नाभिं मे सततं पातु, रम्भाद्यप्सरसः प्रियः क्लीं॥६॥

क्लीं कटिं काम-प्रियो रक्षेद्, गुदं मे गन्धर्व-नायकः।
लिंग-मूले महा-लिंगी, लिंगाग्रे भग-भाग्य-वान् क्लीं॥७॥

क्लीं रेतः रेताचलः पातु, लिंगोत्कृष्ट-बल-प्रदः।
दीर्घ-लिंगी च मे लिंगं, भोग-काले विवर्धय क्लीं॥८॥

क्लीं लिङ्ग-मध्ये च मे पातु, स्थूल-लिंङ्गी च वीर्यवान्।
सदोत्तिष्ठञ्च मे लिंगो, भग-लिङ्गार्चन-प्रियः क्लीं॥९॥

क्लीं वृषणं सततं पातु, भगास्ये वृषण-स्थितः।
वृषणे मे बलं रक्षेद्, बाला-जंघाधः स्थितः क्लीं॥१०॥

क्लीं जंघ-मध्ये च मे पातु, रम्भादि-जघन-स्थितः।
जानू मे रक्ष कन्दर्पो, कन्याभिः परिवारितः क्लीं॥११॥

क्लीं जानू-मध्ये च मे रक्षेन्नारी-जानु-शिरः-स्थितः।
पादौ मे शिविकारुढ़ः, कन्यकादि-प्रपूजितः क्लीं॥१२॥

क्लीं आपाद-मस्तकं पातु, धृत-कह्लार-मालिका।
भार्यां मे सततं पातु, सर्व-स्त्रीणां सु-भोगदः क्लीं॥१३॥

क्लीं पुत्रान् कामेश्वरो पातु, कन्याः मे कन्यकाऽधिपः।
धनं गेहं च धान्यं च, दास-दासी-कुलं तथा क्लीं॥१४॥

क्लीं विद्याऽऽयुः सबलं रक्षेद्, गन्धर्वाणां शिरोमणिः।
यशः कीर्तिञ्च कान्तिञ्च, गजाश्वादि-पशून् तथा क्लीं॥१५॥

क्लीं क्षेमारोग्यं च मानं च, पथिषु च बालालये।
वाते मेघे तडित्-पतिः, रक्षेच्चित्रांगदाग्रजः क्लीं॥१६॥

क्लीं पञ्च-प्राणादि-देहं च, मनादि-सकलेन्द्रियान्।
धर्म-कामार्थ-मोक्षं च, रक्षां देहि सुरेश्वर ! क्लीं॥१७॥

क्लीम रक्ष मे जगतस्सर्वं, द्वीपादि-नव-खण्डकम्।
दश-दिक्षु च मे रक्षेद्, विश्वावसुः जगतः प्रभुः क्लीं॥१८॥

क्लीं साकंकारां सु-रुपां च, कन्या-रत्नं च देहि मे।
विवाहं च प्रद क्षिप्रं, भग-भाग्यादि-सिद्धिदः क्लीं॥१९॥

क्लीं रम्भादि-कामिनी-वारस्त्रियो जाति-कुलांगनाः।
वश्यं देहि त्वं मे सिद्धिं, गन्धर्वाणां गुरुत्तमः क्लीं॥२०॥

क्लीं भग-भाग्यादि-सिद्धिं मे, देहि सर्व-सुखोत्सवः।
धर्म-कामार्थ-मोक्षं च, ददेहि विश्वावसु प्रभो ! क्लीं॥२१॥

अथ् फल-श्रुति

इत्येतत् कवचं दिव्यं, साक्षाद् वज्रोपमं परम्।
भक्तया पठति यो नित्यं, तस्य कश्चिद्भयं नहि॥२२॥

एक-विंशति-श्लोकांश्च, काम-राज-पुटं जपेत्।
वश्यं तस्य जगत् सर्वं, सर्व-स्त्री-भुवन-त्रयम्॥२३॥

सालंकारां सु-रुपां च, कन्यां दिव्यां लभेन्नरः।
विवाहं च भवेत् तस्य, दुःख-दारिद्रयं तं नहि॥२४॥

पुत्र-पौत्रादि-युक्तञ्च, स गण्यः श्रीमतां भवेत्।
भार्या-प्रीतिर्विवर्धन्ति, वर्धनं सर्व-सम्पदाम्॥२५॥

गजाश्वादि-धनं-धान्यं, शिबिकां च बलं तथा।
महाऽऽनन्दमवाप्नोति, कवचस्य पाठाद् ध्रुवम्॥२६॥

देशं पुरं च दुर्गं च, भूषादि-छत्र-चामरम्।
यशः कीर्तिञ्च कान्तिञ्च, लभेद् गन्धर्व-सेवनात्॥२७॥

राज-मान्यादि-सम्मानं, बुद्धि-विद्या-विवर्धनम्।
हेम-रत्नादि-वस्त्रं च, कोश-वृद्धिस्तु जायताम्॥२८॥

यस्य गन्धर्व-सेवा वै, दैत्य-दानव-राक्षसैः।
विद्याधरैः किंपुरुषैः, चण्डिकाद्या भयं नहि॥२९॥

महा-मारी च कृत्यादि, वेतालैश्चैव भैरवैः।
डाकिनी-शाकिनी-भूतैर्न भयं कवचं पठेत्॥३०॥

प्रयोगादि-महा-मन्त्र-सम्पदो क्रूर-योगिनाम्।
राज-द्वारे श्मशाने च, साधकस्य भयं नहि॥३१॥

पथि दुर्गे जलेऽरण्ये, विवादे नृप-दर्शने।
दिवा-रात्रौ गिरौ मेघे, भयं नास्ति जगत्-त्रये॥३२॥

भोजने शयने भोगे, सभायां तस्करेषु च।
दुःस्वप्ने च भयं नास्ति, विश्वावसु-प्रसादतः॥३३॥

गजोष्ट्रादि-नखि-श्रृंगि, व्याग्रादि-वन-देवताः।
खेचरा भूचरादीनां, न भयं कवचं पठेत्॥३४॥

रणे रोगाः न तं यान्ति, अस्त्र-शस्त्र-समाकुले।
साधकस्य भयं नास्ति, सदेदं कवचं पठेत्॥३५॥

रक्त-द्रव्याणि सर्वाणि, लिखितं यस्तु धारयेत्।
सभा-राज-पतिर्वश्यं, वश्याः सर्व-कुलांगनाः॥३६॥

रम्भादि-कामिनीः सर्वाः, वश्याः तस्य न संशयः।
मदन-पुटितं जप्त्वा जप्त्वा च भग-मालिनीं॥३७॥

भग-भाग्यादि-सिद्धिश्च, वृद्धिः तस्य सदा भवेत्।
बाला-त्रिपुर-सुन्दर्या, पुटितं च पठेन्नरः॥३८॥

सालंकारा सुरुपा च, कन्या भार्यास्तु जायतां।
बाला प्रौढ़ा च या भार्या, सर्वा-स्त्री च पतिव्रता॥३९॥

गणिका नृप-भार्यादि, जपाद्-वश्यं च जायताम्।
शत-द्वयोः वर्णकानां, मन्त्रं तु प्रजपेन्नरः॥४०॥

वश्यं तस्य जगत्-सर्वं, नर-नारी-स्व-भृत्य-वत्।
ध्यानादौ च जपेद्-भानुं, ध्यानान्ते द्वादशं जपेत्॥४१॥

गायत्री दस-वारं च, जपेद् वा कवच पठेत्।
युग्म-स्तोत्रं पठेन्नित्यं, बाला-त्रिपुरा-सुन्दरीम्॥४२॥

कामजं वंश-गोपालं, सन्तानार्थे सदा जपेत्।
गणेशास्यालये जप्त्वा, शिवाले भैरवालये॥४३॥

तड़ागे वा सरित्-तीरे, पर्वते वा महा-वने।
जप्त्वा पुष्प-वटी-दिव्ये, कदली-कयलालये॥४४॥

गुरोरभिमुखं जप्त्वा, न जपेत् कण्टकानने।
मांसोच्छिष्ट-मुखे जप्त्वा, मदिरा नाग-वल्लिका॥४५॥

जप्त्वा सिद्धिमवाप्नोति, भग-भाग्यादि-सम्पदां।
देहान्ते स्वर्गमाप्नोति, भुक्त्वा स्वर्गांगना सदा॥४६॥

कल्पान्ते मोक्षमाप्नोति, कैवलं पदवीं न्यसेत्।
न देयं यस्य कस्यापि, कवचं दिव्यं दिव्यं पार्वति॥४७॥

गुरु-भक्ताय दातव्यं, काम-मार्ग-रताय च।
देयं कौल-कुले देवि ! सर्व-सिद्धिस्तु जायताम्॥४८॥

भग-भाग्यादि-सिद्धिश्च, सन्तानौ सम्पदोत्सवः
विश्वावसु प्रसन्नो च, सिद्धि-वृद्धिर्दिनेदिने॥४९॥

॥ इति श्रीरुद्रयामले महा-तन्त्र-राजे श्रीपार्वतीश्वर-सम्वादे श्रीविश्वावसु-गन्धर्व-राज-कवच स्तोत्रम् ॥


जप-फल-समर्पणम्

(निम्नलिखित मन्त्रों से जाप का समर्पण करें)

अनेन श्री विश्वावसुगन्धर्वराजोपासनाख्येन कर्मणाः श्री विश्वावसु गन्धर्वराजाय प्रीयतां न मम्॥

“ॐ तत्सत् श्री विश्वावसु गन्धर्वार्पणमस्तु”

गुह्यातिगुह्यगोप्त्री त्वं गृहाणास्मत्कृतं जपम्।
सिद्धिर्भवतु मे देवि त्वत्प्रसादात्सुरेश्वरः॥

यदक्षरं पदभ्रष्टं मात्राहीनं च यद्भवेत् ।
पूर्णम् भवतु तत् सर्वं त्वत्प्रसादात् महेश्वरः॥

यस्य स्मृत्या च नामोक्त्या तपोयज्ञक्रियादिषु।
न्यूनं सम्पूर्णतां याति सद्यो वन्दे तमच्युतम्॥

ॐ श्रीविष्णवे नमः॥ ॐ श्रीविष्णवे नमः॥ ॐ श्रीविष्णवे नमः॥

“श्री विष्णुस्मरणात् परिपूर्णतास्तु”


॥ श्रीरस्तु ॥
❀꧁○꧂❀

श्री हरि हरात्मक देवें सदा, मुद मंगलमय हर्ष।
सुखी रहे परिवार संग, अपना भारतवर्ष॥
❀꧁○꧂❀

┉ संकलनकर्ता ┉
श्रद्धेय पंडित विश्‍वनाथ प्रसाद द्विवेदी
‘सनातनी ज्योतिर्विद’
संस्थापक, अध्यक्ष एवं प्रबंध निदेशक
(‘हरि हर हरात्मक’ ज्योतिष)
संपर्क सूत्र – 07089434899
┉┅━❀꧁○꧂❀━┅┉

Share this content:

Post Comment

Copyright © 2025 Hari Har Haratmak. All rights reserved.

"enter" 2025 | Powered By SpiceThemes