उत्तम सन्तान सुख प्राप्ति के लिए गर्भ धारण विधि

॥ॐ हरि हर नमो नमः ॐ॥

गर्भस्याऽधानं वीर्यस्थापनं स्थिरीकरणं ।
यस्मिन्येन वा कर्मणा तद् गर्भाधानम् ॥

अर्थात् गर्भ बीज और आधान (स्थापना)। सतेज और दीर्घायु संतान के लिए यथाविधि और यथा समय बीज की स्थापना करनी चाहिए।

जन्मना जायते शुद्रऽसंस्काराद्द्विज उच्यते।

अर्थात् जन्म से सभी शुद्र होते हैं और संस्कारों द्वारा व्यक्ति को द्विज बनाया जाता है।

निषेकाद् बैजिकं चैनो गार्भिकं चापमृज्यते ।
क्षेत्रसंस्कारसिद्धिश्च गर्भाधानफलं स्मृतम् ॥

अर्थात् विधिपूर्वक संस्कार से युक्त गर्भाधान से अच्छी और सुयोग्य संतान उत्पन्न होती है। इस संस्कार से वीर्यसंबधी पाप का नाश होता है, दोष का मार्जन तथा क्षेत्र का संस्कार होता है। यही गर्भाधान-संस्कार का फल है। (स्मृतिसंग्रह)

‘गर्भाधान’ वाले दिन प्रातःकाल गणेशजी का विधिवत पूजन व नांदी श्राद्ध इत्यादि करना चाहिए। अपने कुलदेवता व पूर्वजों का आशीर्वाद लेना चाहिए। ‘गर्भाधान’ के समय गर्भाधान से पूर्व संकल्प व प्रार्थना करनी चाहिए एवं श्रेष्ठ आत्मा का आवाहन कर निमंत्रित करना चाहिए। ‘गर्भाधान’ के समय दंपति की भावदशा एवं वातावरण जितना परिशुद्ध होगा, श्रेष्ठ आत्मा के गर्भप्रवेश की संभावना उतनी ही बलवती होगी। ‘गर्भाधान’ सदैव सूर्यास्त के पश्चात ही करना चाहिए। ‘गर्भाधान’ दक्षिणाभिमुख होकर नहीं करना चाहिए। ‘गर्भाधान’ वाले कक्ष का वातावरण पूर्ण शुद्ध होना चाहिए। ‘गर्भाधान’ के समय दंपति के आचार-विचार पूर्णतया विशुद्ध होने चाहिए। 

आयुर्वेद की दृष्टि से गर्भोत्पत्ति का कारण

चरक संहिता के अनुसार, जब स्त्री पुराने रज के निकल जाने के बाद नया रज स्थित होने पर शुद्ध होकर स्नान कर लेती है और उसकी योनि, रज तथा गर्भाशय में कोई दोष नहीं रहता, तब उसे ऋतुमती कहते हैं। ऐसी स्त्री से जब दोष रहित बीज (शुक्राणु) वाला पुरुष संभोग करता है तब वीर्य, रज तथा जीव इन तीनों का संयोग होने पर गर्भ उत्पन्न होता है। यह जीव (जीवात्मा) गर्भाशय में प्रवेश करके वीर्य तथा रज के संयोग से स्वयं को गर्भ के रूप में उत्पन्न करता है। ज्योतिष में जीव (गुरु) को गर्भोत्पत्ति का प्रमुख कारक माना है।

वीर्य, रज, जीव और मन का संयोग ही गर्भ है

महर्षि आत्रेय मुनि ने कहा है, पुनर्जन्म लेने की इच्छा से जीवात्मा मन के सहित पुरुष के वीर्य में प्रवेश कर जाता है तथा संभोग काल में वीर्य के साथ स्त्री के रज में प्रवेश कर जाता है। स्त्री के गर्भाशय में वीर्य, रज, जीव और मन के संयोग से ‘गर्भ’ की उत्पत्ति होती है।
पुरुष के वीर्य और स्त्री के रज से मन सहित जीव (जीवात्मा) का संयोग जिस समय होता है उसे गर्भाधान काल कहते हैं।

गर्भ उत्पत्ति की संभावना का योग

जब स्त्री की जन्म राशि से अनुपचय (१, २, ४, ५,  ७, ८, ९, १२) स्थान में गोचरीय चंद्रमा मंगल द्वारा दृष्ट हो, उस समय स्त्री की रज प्रवृत्ति हो तो ऐसा रजो दर्शन गर्भाधान का कारण बन सकता है अर्थात गर्भाधान संभव होता है। क्योंकि यह ‘ओब्यूटरी एम. सी.’ होती है। इस प्रकार के मासिक चक्र में स्त्री के अण्डाशय में अण्डा बनता है तथा १२वें से १६वें दिन के बीच स्त्री के गर्भाशय में आ जाता है। यह वैज्ञानिकों की मान्यता है, ज्योतिष मान्यता के अनुसार माहवारी शुरु होने के ६वें दिन से लेकर १६वें दिन तक कभी भी अण्डोत्सर्ग हो सकता है। यदि छठवें दिन गर्भाधान हो जाता है तो वह श्रेष्ठ कहलाता है। यह ब्रह्माजी का कथन है।
मासिक धर्म प्रारंभ होने से १६ दिनों तक स्त्रियों का स्वाभाविक ऋतुकाल होता है। जिनमें प्रारंभ के ४ दिन निषिद्ध (वर्जित) हैं। इसके पश्चात शेष रात्रियों में गर्भाधान (निषेक) करना चाहिए।

पुरुष की राशि से गर्भाधान के योग

गर्भ धारण की इच्छुक स्त्री की योग्यता और उसके अनुकूल समय के साथ-साथ गर्भाधान हेतु पुरुष की योग्यता व उसके अनुकूल समय का होना भी आवश्यक है।

शीतज्योतिषि योषितोऽनुपचयस्थाने कुजेनेक्षिते,
जातं गर्भफलप्रदं खलु रजः स्यादन्यथा निष्फलम् ।
दृष्टेऽस्मिन् गुरुणा निजोपचयगे कुर्यान्निषेक पुमान,
अत्याज्ये च समूलभे शुभगुणे पर्वादिकालोज्झिते ॥

जातक पारिजात में आचार्य वैद्यनाथ ने लिखा है, स्त्री की जन्मराशि से अनुपचय स्थानों में चंद्रमा हो तथा मंगल से दृष्ट या संबद्ध हो तब गर्भाधान संभव है, अन्यथा निष्फल होता है। पुरुष की जन्म राशि से उपचय (३, ६,१०,११) स्थानों में चंद्र गोचर हो और उसे संतान कारक गुरु देखे तो पुरुष को गर्भाधान में प्रवृत्त होना चाहिए।

पुरुष की जन्म राशि से २, ५, ९वें स्थान में जब गुरु गोचर करता है तब वह गर्भाधान करने में सफल होता है। क्योंकि द्वितीय स्थान का गुरु ६ और १०वें चंद्रमा को तथा ५वें स्थान से ११वें चंद्रमा को और ९वां गुरु ३रे चंद्रमा को देखेगा। द्वि, पंच, नवम गुरु से गर्भाधान की संभावना का स्थूल आंकलन किया जाता है। पुरुष की जन्म राशि से ३, ६, १०, ११वें स्थान में सूर्य का गोचर हो तो गर्भाधान की संभावना रहती है।

गर्भाधान का शुभ मुहूर्त एवं लग्न शुद्धि

  • महान वैद्यनाथ द्वारा कथित उपरोक्त योग गर्भ उत्पत्ति की संभावना के योग हैं। गर्भाधान संस्कार हेतु शुभ या अशुभ मुहूर्त से इसका कोई संबंध नहीं है। गर्भ उत्पत्ति संभावित होने पर ही किसी अच्छे ज्योतिषी से गर्भाधान का मुहूर्त निकलवाना चाहिए। यही हमारी संस्कृति का प्राचीन नियम है।
  • शुभ मुहूर्त में गर्भाधान संस्कार करने से सुंदर, स्वस्थ, तेजस्वी, गुणवान, बुद्धिमान, प्रतिभाशाली और दीर्घायु संतान का जन्म होता है। इसलिए गर्भाधान संस्कार का महत्व सर्वाधिक है।
  • गर्भाधान संस्कार हेतु स्त्री (पत्नी) की जन्म राशि से चंद्र बल शुद्धि आवश्यक है। जन्म राशि से ४, ८, १२वां गोचरीय चंद्रमा त्याज्य है। आधान लग्न में भी ४, ८, १२वें चंद्रमा को ग्रहण नहीं करना चाहिए। आधात लग्न में या आधान काल में नीच या शत्रु राशि का चंद्रमा भी त्याज्य है। जन्म लग्न से अष्टम राशि का लग्न त्याज्य है।
  • आघात लग्न का सप्तम स्थान शुभ ग्रहों से युक्त या दृष्ट होना चाहिए। ऐसा होने से कामसूत्र में महान वात्स्यायन द्वारा बताये गये सुंदर आसनों का प्रयोग करते हुए प्रेमपूर्वक संभोग होता है और गर्भाधान सफल होता है।
  • आघात लग्न में गुरु, शुक्र, सूर्य, बुध में से कोई शुभ ग्रह स्थित हों अथवा इनकी लग्न पर दृष्टि हो तो गर्भाधान सफल होता है एवं गर्भ समुचित वृद्धि को प्राप्त होता है तथा होने वाली संतान गुणवान, बुद्धिमान, विद्यावान, भाग्यवान और दीर्घायु होती है। यदि उक्त ग्रह बलवान हो तो उपरोक्त फल पूर्ण रूप से मिलते हैं। गर्भाधान में सूर्य को शुभ ग्रह माना गया है और विषम राशि व विषम नवांश के बुध को ग्रहण नहीं करना चाहिए।
  • आघात लग्न के ३, ५, ९वें भाव में यदि सूर्य हो तो गर्भ पुत्र के रूप में विकसित होता है।
  • गर्भाधान के समय लग्न, सूर्य, चंद्र व गुरु बलवान होकर विषम राशि व विषम नवांश में हो तो पुत्र जन्म होता है। यदि ये सब या इनमें से अधिकांश ग्रह सम राशि व सम नवांश में हो तो पुत्री का जन्म होता है।
  • आधान काल में यदि लग्न व चंद्रमा दोनों शुभ युक्त हों या लग्न व चंद्र से २, ४, ५, ७, ९, १० में शुभ ग्रह हों, तथा पाप ग्रह ३, ६, ११ में हो और लग्न या चंद्रमा सूर्य से दृष्ट हो तो गर्भ सकुशल रहता है।
  • गर्भाधान संस्कार हेतु अश्विनी, रोहिणी, मृगशिरा, हस्त, स्वाती, अनुराधा, उत्तरा, धनिष्ठा, रेवती नक्षत्र प्रशस्त है।
  • पुरुष का जन्म नक्षत्र, निधन तारा (जन्म नक्षत्र से ७, १६, २५वां नक्षत्र) वैधृति, व्यतिपात, मृत्यु योग, कृष्ण पक्ष की अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या, पूर्णिमा व सूर्य संक्रांति काल गर्भाधान हेतु वर्जित है। स्त्री के रजोदर्शन से ग्यारहवीं व तेरहवीं रात्रि में भी गर्भाधान का निषेध है। शेष छठवीं रात्रि से १६वीं रात्रि तक लग्न शुद्धि मिलने पर गर्भाधान करें।

गर्भ का विकास चरक संहिता के अनुसार

आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी इन पंच महाभूतों और इनके गुणों से युक्त हुआ आत्मा गर्भ का रुप ग्रहण करके पहले महिने में अस्पष्ट शरीर वाला होता है। सुश्रुत ने इस अवस्था को ‘कलल’ कहा है। ‘कलल’ भौतिक रूप से रज, वीर्य व अण्डे का संयोग है। गर्भ दूसरे मास में दाना (पिण्ड) हो जाता है।

गर्भ का विकास भगवान धन्वंतरि के अनुसार

तीसरे मास में नेत्रादि इन्द्रियां व हृदय सहित सभी अंग गर्भ में एक साथ उत्पन्न होते हैं। परंतु उनका रूप सूक्ष्म होता है।

गर्भ का विकास आचार्य वराहमिहिर के अनुसार

चौथे मास में हड्डी, पांचवें मास में त्वचा, छठे मास में रोम, सातवें मास में चेतना, आठवें मास में भूख-प्यास की अनुभूति, नवें मास में गर्भस्थ शिशु बाहर आने हेतु छटपटाने लगता है और दसवें मास में पके फल की भांति गर्भ से मुक्त होकर बाहर आ जाता है। अर्थात् गर्भ धारण से दसवें मास में स्वाभाविक (प्राकृतिक) रूप से प्रसव हो जाना चाहिए।

गर्भ रक्षा

शुक्र, मंगल, गुरु, सूर्य, चंद्रमा, शनि, बुध, आघात लग्न का स्वामी, चंद्रमा, सूर्य, ये दस क्रमशः गर्भ मासों के स्वामी (अधिपति) हैं। मासेश जैसी शुभ अशुभ स्थिति में होता है, वैसी ही गर्भस्थ शिशु की स्थिति रहती है।

  • प्रथम, द्वितीय या तृतीय मास में यदि मासेश पाप पीड़ित हो तो उस ग्रह की बलवता या शुभता प्राप्ति के उपाय करना चाहिए। जिससे गर्भ की रक्षा होती है एवं गर्भपात नहीं होता है।
  • गर्भवती स्त्री का आहार-विहार तथा आचार-व्यवहार उत्तम होना चाहिए। गर्भवती स्त्री का स्नेहन (मालिश) और स्वेदन (पसीना निकालना) कर्म करने से गर्भ प्राकृतिक रूप से बढ़ता है।
  • शहद के साथ पुत्रजीवा (औषधि) के आधा तोला चूर्ण को सुबह शाम सेवन करने भी से गर्भ सुरक्षित रहता है।
  • गर्भवती स्त्री द्वारा घी, दूध का सेवन करने से गर्भ पुष्ट होता है तथा प्रसव भी आसानी से हो जाता है।
  • जिस समय पुरुष (पति) की जन्म राशि से उपचय (३, ६, १०, ११) स्थानों में शुक्ल पक्ष का चंद्रमा भ्रमण कर रहा हो तथा गोचरीय चंद्रमा, गोचर के गुरु या शुक्र से दृष्ट हो तथा सम तिथि को स्वविवाहिता स्त्री में गर्भाधान करने से गुणवान व सुयोग्य पुत्र का आगमन होता है।

ऋतुकाल

रजस्राव के प्रथम दिन स्त्री चाण्डाली, दूसरे दिन ब्रह्मघातिनी और तीसरे दिन धोबिन के समान अपवित्र रहती है। इन तीन दिनों में गर्भाधान करने से नरक से आये हुए पापी जीव के शरीर की उत्पत्ति होती है। अतः ऋतुकाल के प्रारंभिक दिनों में गर्भाधान कदापि न करें। मासिक धर्म (ऋतुकाल) के दिनों में स्त्रियों को चाहिए कि वे किसी पुरुष से संपर्क न करें। किसी के पास बैठना और वार्तालाप नहीं करना चाहिए। ऐसा करने से आने वाली संतान पर अशुभ प्रभाव पड़ता है। वेदांग ज्योतिष में ऋतुकाल की प्रथम चार रात्रियां तथा ग्यारहवीं और तेरहवीं निन्दित है। ऋतुस्राव के प्रथम ४ दिन-रात रोगप्रद होने के कारण गर्भाधान हेतु वर्जित है। ग्यारहवीं रात्रि में गर्भाधान करने से अधर्माचरण करने वाली कन्या उत्पन्न होती है। तेरहवीं रात्रि के गर्भाधान से मूर्ख, पापाचरण करने वाली, अपने माता-पिता को दुःख, शोक और भय प्रदान करने वाली दुष्ट कन्या का जन्म होता है। कड़वी, खट्टी, तीखी, उष्ण वस्तुओं का सेवन न करके पांच दिन तक मधुर सेवन करें। छठवीं रात्रि में स्नान आदि से शुद्ध होकर गर्भ धारण करना चाहिए।

जीव का गर्भ (मनुष्य योनि) में प्रवेश

श्रीमद् भगवद्गीता के अनुसार शुभ-अशुभ कर्म (मिश्रित कर्म) करने वाला राजस प्रकृति (प्रवृत्ति) का जीव मनुष्य योनि में जन्म लेता है। अन्य शास्त्रों के अनुसार चैरासी लाख योनियों में जन्म लेने के बाद जीव को मनुष्य योनि (शरीर) की प्राप्ति होती है। नरक लोक में ‘पापात्मा जीव’ नरक यातना भुगतने के पश्चात पाप कर्मों का क्षय होने के उपरांत शुद्ध होकर मनुष्य योनि में जन्म लेता है तथा ‘पुण्यात्मा जीव’ स्वर्ग लोक में अपने पुण्य कर्मों का सुख भोगता है, पुण्य कर्मों के क्षीण हो जाने के पश्चात जीव धर्मात्मा या धनवान मनुष्यों के यहां जन्म लेता है।

“जन्म प्राप्नोति पुण्यात्मा ग्रहेषूच्चगतेषु च।” अर्थात पुण्यात्मा जीव के जन्म के समय अधिकांश ग्रह अपनी उच्च राशि में होते हैं। एक रात्रि के शुक्र-शोणित योग से कोदों के सदृश्य, पांच रात्रि में बुद्बुद सदृश्य, दस दिन होने पर बदरी फल के समान होता है। तदंतर मांस पिण्डाकार होता हुआ पेशीपिंड अण्डाकार होता है। एक माह में गर्भस्थ भ्रूण पुरुष के हाथ के अंगूठे के अग्रिम पोर के बराबर आकार का हो जाता है। प्रथम माह में मांसपिंड में से शिशु के (अर्थात् भ्रूण के) बाहरी मस्तक की रचना हो जाती है। हाथ, पैर आदि अंगों की रचना दूसरे माह में हो जाती है। यह तो स्पष्ट ही है। इसके साथ ही आंख, कान, नाक, मुंह, लिंग और गुदा की रचना भी हो जाती है किंतु इनके छिद्र नहीं खुलते हैं। तीसरा माह पूर्ण होने तक सभी इन्द्रियों के छिद्र खुल जाते हैं। ज्ञानेन्द्रियों की रचना के बाद भी ज्ञान प्राप्ति नहीं होती है।
रूधिर, मेद, मास, मज्जा, हड्डियों व नसों की रचना चौथे माह में हो जाती है। आचार्य वराहमिहिर ने हड्डियों व नसों की चौथे माह में होना तो ठीक बताया है किंतु पांचवें माह में चमड़ी का और छठवें माह में रुधिर व नख (नाखूनों) का निर्माण ठीक नहीं है। क्योंकि इनका निर्माण तो पूर्व में ही हो जाता है। ऐसा गुरुड़ पुराण का मत है। पांचवें माह में क्षुधा-तृष्णा उत्पन्न होना यह पौराणिक मत ठीक नहीं है क्योंकि गर्भस्थ जीव में चेतना और ज्ञान की प्राप्ति सातवें माह में बताई गई है तो फिर इससे पूर्व क्षुधा व तृष्णा (भूख-प्यास) कैसे उत्पन्न होगी ?
भूख-प्यास, स्वाद और ओज आदि का आठवें माह में उत्पन्न होना। यह आचार्य वराहमिहिर का मत उपयुक्त व सटीक जान पड़ता है।

मासाधिपति के पीड़ित होने पर गर्भपात हो जाता है। आचार्य वराहमिहिर के अनुसार, “मासाधिपतौ निपीड़िते, तत्कालं स्त्रवणं समादिशेत्” अतः गर्भ मास के स्वामी ग्रह के पीड़ित होने पर तत्काल गर्भस्राव (गर्भपात) हो जाता है। जिस मास में मासाधिपति बलवान या शुभ दृष्ट हों उस मास में सुखपूर्वक गर्भ की वृद्धि होती है। जब गोचरमान से मंगल, शुक्र या गुरु पाप ग्रह से दृष्ट या युत होते हैं, अथवा अपनी नीच या शत्रु राशि में होते हैं तो क्रमशः प्रथम, द्वितीय या तृतीय मास में गर्भपात हो जाता है। सबसे अधिक गर्भपात मंगल के कारण ही होते हैं, क्योंकि मंगल रक्त का कारक है, अतः गर्भावस्था के प्रारंभ में मंगल ग्रह के शांत्यर्थ उपाय करना चाहिए तथा शुक्रादि कोई ग्रह यदि पाप पीड़ित हो तो उस हेतु भी मंत्र जप व दान आदि करने चाहिए इससे गर्भ सुरक्षित रहता है। यहां हम एक बात देना चाहते हैं कि सूर्य, चंद्रमा गर्भ को पुष्ट करने वाले और प्रसव कारक होते हैं। गर्भ के तीसरे माह में जब गर्भस्थ शिशु के लिंगादि अंगों की रचना होती है उस समय गर्भवती स्त्री को यदि सूर्य तत्व वाली औषधियां खिलाई जावें तो सूर्य तत्व की अधिकता के कारण गर्भस्थ शिशु पुरूष लिंगी बन जाता है।

(विरोध परिहार :- सबसे पहले तो मैं यह स्पष्ट कर दूं कि गर्भ मासों की गणना गर्भाधान के दिन से करना चाहिए। पूर्व या पश्चात की एम.सी. तिथि, रजो दर्शन के समय से नहीं।)

गर्भ रक्षा की नवमांस चिकित्सा

प्रयत्नपूर्वक गर्भ की रक्षा करना पति-पत्नी दोनों का संयुक्त दायित्व है। गर्भावस्था में स्त्री को काम, क्रोध, लोभ, मोह से बचना चाहिए। गर्भवती स्त्री को अत्यधिक ऊंचे या नीचे स्थानों पर नहीं जाना चाहिए। गर्भवती स्त्री को कठिन यात्राऐं वर्जित हैं। गर्भवती स्त्री को कठिन आसन या व्यायाम नहीं करना चाहिए। तीखे, खट्टे, कड़वे अत्याधिक गरम पदार्थों का सेवन करने से या गर्भ पर किसी प्रकार का दबाव पड़ने से गर्भ नष्ट हो जाता है।
लड़ाई, झगड़ा, शोक, कलह और मैथुन/संभोग से स्त्री को बचना चाहिए। गर्भस्थ शिशु का स्वास्थ्य अच्छा रहे, उसके शरीर का समुचित विकास होता रहे तथा गर्भवती स्त्री शारीरिक रूप से इतनी सक्षम हो कि उचित समय पर सर्वगुण संपन्न, सुखी व स्वस्थ शिशु को सुखपूर्वक जन्म दे सके। इस हेतु ‘चरक संहिता’ में महर्षि चरक ने नवमांस चिकित्सा का विधान वर्णित किया है।

  • प्रथम मास – मासिक धर्म का समय आने पर भी जब ऋतुस्राव न हो तथा गर्भ स्थापना के लक्षण प्रकट होने लगे तब प्रथम मास में गर्भवती स्त्री को सुबह शाम मिश्री मिला हुआ ठंडा दूध पीना चाहिए।
  • द्वितीय मास – द्वितीय मास में दस ग्राम शतावर के मोटे चूर्ण को २०० ग्राम दूध में २०० ग्राम पानी मिलाकर, १० ग्राम मिश्री डालकर धीमी आग पर उबालें, जब सारा पानी उड़ जाए और दूध ही शेष बचे तो इसे छानकर गुनगुना होने पर घूंट घूंट करके गर्भवती स्त्री पीएं। यह प्रयोग सुबह और रात को सेाने से आधा घंटा पूर्व करेें।
  • तृतीय मास – इस मास में गर्म दूध को ठंडा करके १ चम्मच शुद्ध घी और ३ चम्मच शहद घोलकर सुबह शाम पीना चाहिए।
  • चतुर्थ मास – इस मास में दूध के साथ ताजा मख्खन २० ग्राम की मात्रा में सुबह शाम सेवन करना चाहिए।
  • पंचम मास – पांचवें मास में केवल दूध व शुद्ध घी का अपनी पाचन शक्ति के अनुरूप सेवन करें।
  • छठा मास – इस मास में द्वितीय मास की भांति क्षीर पाक (शतावर साधित दूध) का सेवन करना चाहिए।
  • सप्तम मास – इस मास में छठे मास का प्रयोग जारी रखें।
  • आठवां मास – इस मास में दूध-दलिया, घी उबालकर शाम के भोजन में भरपेट खाना चाहिए।
  • नवम मास – नवें मास में शतावर साधित तेल में रुई का फाहा भिगोकर रोजाना रात को सोते समय योनि के अंदर गहराई में रख लिया करें। एक माह तक यह प्रयोग करने से प्रसव के समय अधिक कष्ट नहीं होगा और सुखपूर्वक प्रसव हो सकेगा।
  • दसवें माह – में जब प्रसव वेदना होने लगे तब वचा (वच) की छाल को एरंड के तेल में घिसकर गर्भवती स्त्री की नाभि के आसपास और नीचे पेडू पर मलें (लगाएं) ऐसा करने से सुखपूर्वक प्रसव होगा।

आधुनिक प्रजनन तकनीक भले ही निःसंतान दंपत्ति के लिए आशा की किरण साबित हुई हो। किंतु ‘डिजाईनर किड्स’ टेस्ट ट्यूब बेबी और सेरोगेसी को समाज के अधिकांश लोग यदि अपनाने लग जायें तो आगे आने वाली पीढ़ी में असंवेदना, संस्कारहीनता और अनैतिकता तथा असामाजिकता निश्चित ही बढ़ जायेगी। इसमें कोई संदेह नहीं है। कौन नहीं चाहता कि उसके बच्चे तन-मन से सुंदर, स्वस्थ तथा बुद्धि से तेजस्वी हो। किंतु मात्र चाहने से क्या हो ? बोते तो हम नीम की निबोली हैं फिर हमें आम के मीठे फल कैसे प्राप्त होंगे ? गांव का अनपढ़ किसान भी भलीभांति जानता है कि कौन सी फसल कब बोना चाहिए। प्रत्येक पशु पक्षी भी किसी विशेष ऋतु काल में ही समागम करते हैं। किंतु स्वयं को सर्वश्रेष्ठ प्राणी कहने वाला मनुष्य आज भूल गया है कि उसे गर्भाधान कब करना चाहिए और कब नहीं। श्रेष्ठ और सर्वगुण संपन्न संतान प्राप्ति का भारतीय मनीषियों के पास एक पूरा जन्म विज्ञान था। उनके पास ऐसे अनेक नुस्खे थे जिससे वे शिशु के जन्म से पूर्व ही उसकी प्रोग्रामिंग कर लेते थे फलतः उन्हें मनोवांछित संतान की प्राप्ति हो जाती थी। अथर्ववेदांग ज्योतिष, मनुस्मृति और व्यास सूत्र में बुद्धिमान और प्रतिभाशाली तथा गुण, कर्म, स्वभाव से अच्छी संतान प्राप्ति के सूत्र दिये हुए हैं। उन्हें हम समीक्षात्मक ढंग से सार रूप में लोक कल्याण हेतु प्रस्तुत कर रहे हैं।

  • जिस दिन स्त्री को रजस्राव (रजोदर्शन) शुरू होता है वह उसके मासिक धर्म का प्रथम दिन/रात कही जाती है। स्त्री के मासिक धर्म के प्रथम दिन से लेकर सोलहवें दिन तक का स्वाभाविक ऋतुकाल माना गया है। ऋतुकाल में ही गर्भाधान करें।
  • ऋतुकाल की प्रथम चार रात्रियां रोगकारक होने के कारण निषिद्ध हैं। इसी तरह ग्यारहवीं और तेरहवीं रात्रि भी निंदित है। अतः इन छः रात्रियों को छोड़कर शेष दस रात्रियों में ही गर्भाधान करें। इन दस रात्रियों में भी यदि कोई पर्व-व्रतादि हो तो भी समागम न करें।
  • उपरोक्त विधि से चयन की गई रात्रियों के अलावा शेष समय पति-पत्नी संयम से रहें। क्योंकि ब्रह्मचारी का वीर्य ही श्रेष्ठ होता है, कामी पुरूषों का नहीं और श्रेष्ठ बीजों से ही श्रेष्ठ फलों की उत्पत्ति होती है।
  • गर्भाधान हेतु ऋषियों ने रात्रि ही महत्वपूर्ण मानी है। अतः रात्रि के द्वितीय प्रहर (१० से १ बजे) में ही समागम करें। ऐतरेयोपनिषद् के अनुसार ‘दिन में संभोग करने से प्राण क्षीण होते हैं’। इसी उपनिषद में प्रदोष काल अर्थात् गोधूली बेला भी संभोग हेतु निषिद्ध कही गई है।
  • शारीरिक, मानसिक रूप से स्वस्थ तथा निरोगी, बुद्धिमान और श्रेष्ठ संतान चाहने वाली दंपत्ति को चाहिए कि वह गर्भकाल/गर्भावस्था में संभोग कदापि न करें। अन्यथा होने वाली संतान जीवन भर काम वासना से त्रस्त रहेगी तथा उसे किसी भी प्रकार का शारीरिक मानसिक रोग/विकृति हो सकती है।
  • संस्कारवान और सच्चरित्र संतान की कामना वाली गर्भवती स्त्री को चाहिए वह गर्भावस्था के दौरान काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, द्वेष आदि विकारों का परित्याग कर दे। शुभ आचरण करे और प्रसन्नचित रहे।

गर्भ से उत्पन्न जीव का अवलोकन

मासिक स्राव रुकने से अंतिम दिन (ऋतुकाल) के बाद ४, ६, ८, १०, १२, १४ एवं १६वीं रात्रि के गर्भाधान से पुत्र तथा ५, ७, ९, ११, १३ एवं १५वीं रात्रि के गर्भाधान से कन्या जन्म लेती है।

  • चौथी रात्रि के गर्भ से पैदा पुत्र अल्पायु और दरिद्र होता है।
  • पाँचवीं रात्रि के गर्भ से जन्मी कन्या भविष्य में सिर्फ लड़की पैदा करेगी।
  • छठवीं रात्रि के गर्भ से मध्यम आयु वाला पुत्र जन्म लेगा।
  • सातवीं रात्रि के गर्भ से पैदा होने वाली कन्या बांझ होगी।
  • आठवीं रात्रि के गर्भ से पैदा पुत्र ऐश्वर्यशाली होता है।
  • नौवीं रात्रि के गर्भ से ऐश्वर्यशालिनी पुत्री पैदा होती है।
  • दसवीं रात्रि के गर्भ से चतुर पुत्र का जन्म होता है।
  • ग्यारहवीं रात्रि के गर्भ से चरित्रहीन पुत्री पैदा होती है।
  • बारहवीं रात्रि के गर्भ से पुरुषोत्तम पुत्र जन्म लेता है।
  • तेरहवीं रात्रि के गर्म से वर्णसंकर पुत्री जन्म लेती है।
  • चौदहवीं रात्रि के गर्भ से उत्तम पुत्र का जन्म होता है।
  • पंद्रहवीं रात्रि के गर्भ से सौभाग्यवती पुत्री पैदा होती है।
  • सोलहवीं रात्रि के गर्भ से सर्वगुण संपन्न, पुत्र पैदा होता है।

सहवास के नियम

सहवास से निवृत्त होते ही पत्नी को दाहिनी करवट से १०-१५ मिनट लेटे रहना चाहिए, अचानक से नहीं उठना चाहिए।

पहला नियम : हमारे शरीर में ५ प्रकार की वायु रहती है। इनका नाम है (१) व्यान, (२) समान, (३) अपान, (४) उदान और (५) प्राण। उक्त पांच में से ‘अपान वायु’ का कार्य मल, मूत्र, शुक्र, गर्भ और आर्तव को बाहर निकालना है। इसमें जो शुक्र है वही वीर्य है अर्थात यह वायु ‘संभोग’ से संबंध रखती है। जब इस वायु की गति में फर्क आता है अथवा यह वायु जब किसी भी प्रकार से दूषित हो जाती है तो मूत्राशय और गुदा संबंधी रोग उत्पन्न होते हैं। इस कारण संभोग की शक्ति भी दुष्प्रभावित होती है। अपान वायु माहवारी, प्रजनन और संभोग को नियंत्रित करने का कारक है। अतः इस वायु को शुद्ध और गतिशील बनाए रखने के लिए आपको अपने उदर को सही रखना होगा और सही समय पर शौचादि से निवृत्त होना होगा।

दूसरा नियम : कामसूत्र के रचयिता महान आचार्य वात्‍स्‍यायन के अनुसार स्त्रियों को कामशास्त्र का ज्ञान होना अत्यन्त आवश्यक है, क्‍योंकि इस ज्ञान का प्रयोग पुरुषों से अधिक स्त्रियों के लिए अतीव आवश्यक है। हालांकि दोनों को ही इसका भरपूर ज्ञान हो, तभी अच्छे सुख की प्राप्ति होती है। वात्‍स्‍यायन के अनुसार स्‍त्री को विवाह से पूर्व पिता के घर में और विवाह के पश्‍चात पति की अनुमति से काम की शिक्षा लेनी चाहिए। आचार्य वात्‍स्‍यायन का मत है कि स्त्रियों को बिस्‍तर पर गणिका की तरह व्‍यवहार करना चाहिए। इससे दांपत्‍य जीवन में स्थिरता बनी रहती है और पति अन्‍य स्त्रियों की ओर आकर्षित नहीं हो पाता तथा पत्‍नी के साथ उसके मधुर संबंध बने रहते हैं। इसलिए स्त्रियों को यौनक्रिया का ज्ञान होना आवश्‍यक है ताकि वह काम कला में निपुण हो सके और पति को अपने प्रेमपाश में बांधकर रख सके। आचार्य वात्‍स्‍यायन के अनुसार एक कन्‍या के लिए सहवास की शिक्षा देने वाले विश्‍वसनीय व्यक्ति हो सकते हैं – दाई, विश्वासपात्र सेविका की ऐसी कन्‍या, जो साथ में खेली हो और विवाहित होने के पश्‍चात पुरुष समागम से परिचित हो, विवाहिता सखी, हमउम्र मौसी या बड़ी बहन, अधेड़ या बुढ़िया दासी, बड़ी बहन, ननद या भाभी जिसे संभोग का आनंद प्राप्‍त हो चुका हो तथा उसका स्पष्ट बोलने और मधुर बोलने वाली होना जरूरी हो ताकि वह काम का सही-सही ज्ञान दे सके।

तीसरा नियम : शास्त्रों के अनुसार कुछ ऐसे दिन भी हैं जिस दिन पति-पत्नी को किसी भी रूप में शारीरिक संबंध स्थापित नहीं करने चाहिए, जैसे अमावस्या, पूर्णिमा, चतुर्थी, अष्टमी, रविवार, संक्रांति, संधिकाल, श्राद्ध पक्ष, नवरात्रि, श्रावण मास और ऋतुकाल आदि में स्त्री और पुरुष को एक-दूसरे से दूर ही रहना चाहिए। इस नियम का पालन करने से घर में सुख, शांति, समृद्धि और आपसी प्रेम-सहयोग बना रहना है अन्यथा गृहकलह और धन की हानि के साथ ही व्यक्ति आकस्मिक घटनाओं को आमंत्रित कर लेता है।

चौथा नियम : रात्रि का पहला प्रहर रतिक्रिया के लिए उचित समय है। इस प्रहर में की गई रतिक्रिया के फलस्वरूप ऐसी संतान प्राप्त होती है, जो अपनी प्रवृत्ति एवं संभावनाओं में धार्मिक, सात्विक, अनुशासित, संस्कारवान, माता-पिता से प्रेम रखने वाली, धर्म का कार्य करने वाली, यशस्वी एवं आज्ञाकारी होती है। भगवान शिव से आशीर्वाद प्राप्त ऐसी संतान दीर्घायु एवं भाग्यवाली होती है। प्रथम प्रहर के पश्चात राक्षसगण पृथ्वीलोक के भ्रमण पर निकलते हैं। उस समय जो रतिक्रिया की गई हो, उससे उत्पन्न होने वाली संतान में राक्षसों के ही समान गुण आने की प्रबल आशंका होती है। पहले प्रहर के पश्चात रतिक्रिया इसलिए भी अशुभकारी है, क्योंकि ऐसा करने से शरीर को कई रोग घेर लेते हैं। व्यक्ति अनिद्रा, मानसिक क्लेश, थकान का शिकार हो सकता है एवं माना जाता है कि भाग्य भी उससे रूठ जाता है।

पांचवां नियम : यदि कोई संतान के रूप में पुत्रियों के बाद पुत्र चाहता है तो उसे आचार्य वात्स्यायन द्वारा प्रकट किए गए प्राचीन नियमों को समझना चाहिए। इस नियम के अनुसार स्त्री को हमेशा अपने पति के बाईं ओर सोना चाहिए। कुछ देर बाईं करवट लेटने से दायां स्वर और दाहिनी करवट लेटने से बायां स्वर चालू हो जाता है। ऐसे में दाईं ओर लेटने से पुरुष का दायां स्वर चलने लगेगा और बाईं ओर लेटी हुई स्त्री का बायां स्वर चलने लगता है। जब ऐसा होने लगे तब संभोग करना चाहिए। इस स्थिति में गर्भाधान हो जाता है।

छठा नियम : आयुर्वेद के अनुसार स्त्री के मासिक धर्म के दौरान अथवा किसी रोग, संक्रमण होने पर संभोग नहीं करना चाहिए। यदि आप स्वयं को संक्रमण या जीवाणुओं से बचाना चाहते हैं, तो सहवास के पहले और बाद में कुछ स्वच्छता नियमों का पालन करना चाहिए। जननांगों पर किसी भी तरह का घाव या दाने हों तो सहवास न करें। सहवास से पहले शौचादि से निवृत्त हो लें। सहवास के बाद जननांगों को अच्छे से साफ करें या स्नान करें। प्राचीनकाल में सहवास से पहले और बाद में स्नान किए जाने का नियम था।

सातवां नियम : मित्रवत व्यवहार न होने पर, काम की इच्छा न होने पर, रोग या शोक होने पर भी संभोग नहीं करना चाहिए। इसका मतलब यह कि यदि आपकी पत्नी या पति की इच्छा नहीं है, किसी दिन व्यवहार मित्रवत नहीं है, मन उदास या खिन्न है तो ऐसी स्थिति में यह कार्य नहीं करना चाहिए। यदि मन में या घर में किसी भी प्रकार का शोक हो तब भी संभोग नहीं करना चाहिए। मनःस्थिति अच्छी हो तभी सहवास करना चाहिए।

आठवां नियम : पवित्र माने जाने वाले वृक्षों के नीचे, सार्वजनिक स्थानों, चौराहों, उद्यान, श्मशान घाट, वध स्थल, चिकित्सालय, औषधालय, मंदिर, ब्राह्मण, गुरु और अध्यापक के निवास स्थान में सहवास करना वर्जित है। यदि कोई व्यक्ति ऐसा करता है तो उसको इसका अशुभ परिणाम भी उसे अवश्य भुगतना ही होता है।

नौवां नियम : बदसूरत, दुश्चरित्र, अशिष्ट व्यवहार करने वाली तथा अकुलीन, परस्त्री या परपुरुष के साथ सहवास नहीं करना चाहिए अर्थात व्यक्ति को अपनी पत्नी या स्त्री को अपने पति के साथ ही सहवास करना चाहिए। नियमविरुद्ध जो ऐसा कार्य करता है, वह जीवन के किसी भी मोड़ पर कष्ट भोगता है। उसके अनैतिक कृत्य का परिणाम उसे अवश्य ही भुगतना होता है।

दसवां नियम : गर्भकाल के दौरान दंपति को सहवास नहीं करना चाहिए। यदि गर्भकाल में संभोगरत होते हैं, तो भावी संतान के अपंग और रोगी पैदा होने का भय बना रहता है। शास्त्रों के अनुसार २ या ३ माह तक सहवास किए जाने का उल्लेख मिलता है लेकिन गर्भ ठहरने के पश्‍चात नहीं किया जाए तो ही उचित है।

ग्यारहवां नियम : शास्त्रसम्मत है कि सुंदर, दीर्घायु और स्वस्थ संतान के लिए गडांत, ग्रहण, सूर्योदय एवं सूर्यास्तकाल, निधन नक्षत्र, रिक्ता तिथि, दिवाकाल, भद्रा, पर्वकाल, अमावस्या, श्राद्ध के दिन, गंड तिथि, गंड नक्षत्र तथा आठवें चन्द्रमा का त्याग करके शुभ मुहुर्त में संभोग करना चाहिए। गर्भाधान के समय गोचर में पति/पत्नी के केंद्र एवं त्रिकोण में शुभ ग्रह हों, तीसरे, छठे ग्यारहवें घरों में पाप ग्रह हों, लग्न पर मंगल, गुरु इत्यादि शुभकारक ग्रहों की दॄष्टि हो और मासिक धर्म से सम रात्रि हो, उस समय सात्विक विचारपूर्वक योग्य पुत्र की कामना से यदि रतिक्रिया की जाए तो निश्चित ही योग्य पुत्र की प्राप्ति होती है। इस समय में पुरुष का दायां एवं स्त्री का बायां स्वर ही चलना चाहिए, यह अत्यंत अचूक उपाय है। कारण यह है कि पुरुष का जब दाहिना स्वर चलता है तब उसका दाहिना अंडकोश अधिक मात्रा में शुक्राणुओं का विसर्जन करता है जिससे कि अधिक मात्रा में पुल्लिंग शुक्राणु निकलते हैं अतः पुत्र ही उत्पन्न होता है।

बारहवां नियम : मासिक धर्म शुरू होने के प्रथम ४ दिवसों में संभोग से पुरुष रुग्णता को प्राप्त होता है। पांचवीं रात्रि में संभोग से कन्या, छठी रात्रि में पुत्र, सातवीं रात्रि में बंध्या पुत्री, आठवीं रात्रि के संभोग से ऐश्वर्यशाली पुत्र, नौवीं रात्रि में ऐश्वर्यशालिनी पुत्री, दसवीं रात्रि के संभोग से अतिश्रेष्ठ पुत्र, ग्यारहवीं रात्रि के संभोग से सुंदर पर संदिग्ध आचरण वाली कन्या, बारहवीं रात्रि से श्रेष्ठ और गुणवान पुत्र, तेरहवीं रात्रि में चिंतावर्धक कन्या एवं चौदहवीं रात्रि के संभोग से सद्गुणी और बलवान पुत्र की प्राप्ति होती है। पंद्रहवीं रात्रि के संभोग से लक्ष्मीस्वरूपा पुत्री और सोलहवीं रात्रि के संभोग से गर्भाधान होने पर सर्वज्ञ पुत्र संतान की प्राप्ति होती है। इसके पश्चात किये गये सहवास से गर्भ नहीं ठहरता।

श्रद्धेय पंडित विश्वनाथ द्विवेदी ‘वाणी रत्न’
संस्थापक एवं अध्यक्ष – ‘हरि हर हरात्मक’ ज्योतिष संस्थान
संपर्क सूत्र – 📞 +91-7089434899
Website 🌐 www.hariharharatmak.com

“हरि हर हरात्मक देवें सदा मुद मंगलमय हर्ष। सुखी रहे परिवार संग अपना भारतवर्ष ॥

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Pandit Vishwanath Prasad Dwivedi

Pandit Vishwanath Prasad Dwivedi personality is best described with the following words: extravert.
Pandit Vishwanath Prasad Dwivedi is active, expressive, social, interested in many things. Pandit Vishwanath Dwivedi has more than 8 years of executive experience in the field of Astrology. With all of his heart and mind, he devotes his time to this profession. He knows that he is in a certain position to help people and make their lives better. And, the most fascinating aspect of his personality is his benevolence in approaching people which leaves an impact on them to last forever. His primary area of expertise is Vedic Astrology and he uses his skills with full potential to help his clients in the best possible way. To make people happy and put them out of their misery gives him an immense kind of satisfaction. With the most righteous of intentions, he hopes to take his name and fame to the next level and spread his wings on the international domain as well.

Pandit Vishwanath, a luminary in the realm of Vedic Astrology, boasts a rich legacy of almost a decade of unwavering dedication to this ancient science. His profound knowledge transcends the boundaries of time, as he skillfully deciphers the cosmic code imprinted in the Vedas. With a penchant for unraveling celestial mysteries, Pandit Vishwanath has illuminated countless lives with his astute astrological insights. His clients seek solace in his wisdom, knowing that his predictions are rooted in the ancient wisdom of the Vedas, offering both guidance and clarity in the tumultuous sea of life. Pandit Vishwanath's commitment to preserving and disseminating Vedic Astrology's profound teachings is a beacon of hope for those navigating life's challenges. His invaluable expertise continues to inspire and empower seekers on their spiritual journeys.

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