मानव जीवन सफल बनाने हेतु पालन करने योग्य १० नियम
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मानव जीवन सफल बनाने हेतु पालन करने योग्य १० नियम
मनुष्य को क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए, इन सिद्धांतोंको समझ कर, उनका पालन करने पर जीवन को सुखद बनाया जा सकता है। आचार्य अनिल मिश्रा जी ने श्रीमद् देवी पुराण का गहन अध्ययन करके इन १० नियमों के बारे में बताया है। इन नियमों का पालन प्रत्येक मनुष्य को अपने जीवन में करना ही चाहिए।
तपः सन्तोष आस्तिक्यं दानं देवस्य पूजनम्।
सिद्धान्तश्रवणं चैव ह्रीर्मतिश्च जपो हुतम्॥
अर्थात तप , संतोष , आस्तिकता , दान , देव पूजन
शास्त्र सिद्धांतों का श्रवण , लज्जा , सद्बुद्धि
जप , हवन इन १० नियमों का परिपालन करने से मानव जीवन सफल हो जाता है।
१ – तप
भगवद्गीता में तप और संन्यास के दार्शनिक पक्ष का सर्वात्तम स्वरूप दिखाई देता है और उसके शरीरिक, वाचिक और मानसिक तथा सात्विक, राजसी और तामसी प्रकार बताए गए हैं। शारीरिक तप देव, द्विज, गुरु और अहिंसा में निहित होता है, वाचिक तप अनुद्वेगकर वाणी, सत्य और प्रियभाषण तथा स्वाध्याय से होता है और मानसिक तप मन की प्रसन्नता, सौम्यता, आत्मनिग्रह और भावसंशुद्धि से सिद्ध होता है।
इसके साथ ही उत्तम तप तो है सात्विक जो श्रद्धापूर्वक फल की इच्छा से विरक्त होकर किया जाता है। इसके विपरीत सत्कार, मान और पूजा के लिये दंभपूर्वक किया जानेवाला राजस तप अथवा मूढ़तावश अपने को अनेक कष्ट देकर दूसरे को कष्ट पहुँचाने के लिये जो भी तप किया जाता है, वह आदर्श नहीं। स्पष्ट है, भारतीय तपस् में जीवन के शाश्वत मूल्यों की प्राप्ति को ही सर्वोच्च स्थान दिया गया है और निष्काम कर्म उसका सबसे बड़ा मार्ग माना गया है।
२ – संतोष
संतोषम् परम् सुखम्
संतोष मन की वह वृत्ति, मन की वह अवस्था है जिसमें मनुष्य अपनी वर्तमान दशा में ही पूर्णा सुख का अनुभव करता है न तो किसी बात की कामना करता है और न किसी बात की शिकायत । हर हालत में प्रसन्न रहना ।
संतुष्टि ‘संतोष’ योग का एक अंग और उसके नियम के अंर्तगत है । इसकी उत्पत्ति सात्विक वृत्ति से मानी गई है; और कहा गया है कि इसके पैदा हो जाने पर मनुष्य को अनंत और अखंड सुख मिलता है । पुराणानुसार धर्मानुष्ठान से सदा प्रसन्न रहना और दुःख में भी आतुर न होना संतोष कहलाता है ।
मनुष्य के जीवन में कई इच्छाएं होती हैं। हर इच्छा को पूरा कर पाना संभव नहीं होता। ऐसे में मनुष्य को अपने मन में संतोष (संतुष्टि) रखना बहुत जरूरी होता है। असंतोष की वजह से मन में जलन, लालच जैसी भावनाएं जन्म लेने लगती हैं। जिनकी वजह से मनुष्य गलत काम तक करने को तैयार हो जाता है। सुखी जीवन के लिए इन भावनाओं से दूर रहना बहुत आवश्यक होता है। इसलिए, मनुष्य हमेशा अपने मन में संतोष रखना चाहिए।
३ – आस्तिकता
सनातन धर्म में ईश्वर, इहलोक, व्यक्त, राज्ञा, के अस्तित्व में, विशेषत: ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास का नाम आस्तिकता है। पाश्चात्य दर्शन में ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास का ही नाम आस्तिकता है।
आस्तिकता का अर्थ होता है- देवी-देवता में विश्वास रखना। हमें सदैव देवी-देवताओं का स्मरण करते रहना चाहिए। संघर्षमय जीवन पथ को सुगम सहज करने के लिए आस्तिकता की भावना होना बहुत ही जरूरी होता है।
४ – दान
सभी धर्मों में सुपात्र को दान देना परम् कर्तव्य माना गया है।किन्तु सनातन वैदिक हिन्दू धर्म में दान का बहुत ही महत्व है। दान करने से पुण्य प्राप्त होता है। दान करने पर ग्रहों के दोषों का भी नाश होता है। दान देकर या अन्य पुण्य कर्म करके ग्रह दोषों का निवारण किया जा सकता है। मनुष्य को अपने जीवन में सदैव दान कर्म करते रहना चाहिए।
सात्विक, राजस और तामस, इन भेदों से दान तीन प्रकार का कहा गया है। जो दान पवित्र स्थान में और उत्तम समय में ऐसे व्यक्ति को दिया जाता है जिसने दाता पर किसी प्रकार का उपकार न किया हो वह सात्विक दान है। अपने ऊपर किए हुए किसी प्रकार के उपकार के बदले में अथवा किसी फल की आकांक्षा से अथवा विवशतावश जो दान दिया जाता है वह राजस दान कहा जाता है। अपवित्र स्थान एवं अनुचित समय में बिना सत्कार के, अवज्ञतार्पूक एवं अयोग्य व्यक्ति को जो दान दिया जात है वह तामस दान कहा गया है।
कायिक, वाचिक और मानसिक इन भेदों से पुन: दान के तीन भेद गिनाए गए हैं। संकल्पपूर्वक जो सूवर्ण, रजत आदि दान दिया जाता है वह कायिक दान है। अपने निकट किसी भयभीत व्यक्ति के आने पर जौ अभय दान दिया जाता है वह वाचिक दान है। जप और ध्यान प्रभृति का जो अर्पण किया जाता है उसे मानसिक दान कहते हैं।
विद्या दान – विद्या देना
भू दान – भूमि देना
अन्न दान – खाना देना
कन्या दान – कन्या को विवाह के लिए वर को देना
गो दान – गाय देना
तपस्वी, वेद और शास्त्र को जाननेवाला और शास्त्र में बतलाए हुए मार्गं के अनुसार स्वयं आचरण करनेवाला व्यक्ति दान का उत्तम पात्र है। यहाँ गुरु का प्रथम स्थान है। इसके अनंतर विद्या, गुण एवं वय के अनुपात से पात्रता मानी जाती है। इसके अतिरिक्त जामाता, दौहित्र तथा भागिनेय भी दान के उत्तम पात्र हैं। ब्राह्मण को दिया हुआ दान षड्गुणित, क्षत्रिय को त्रिगुणित, वैश्य का द्विगुणित एवं शूद्र को जो दान दिया जाता है वह सामान्य फल को देनेवाला कहा गया है।
५- देव पूजन
प्रत्येक मनुष्य की अनेकानेक कामनाएं होती हैं। अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिए सत्कर्मों के साथ-साथ देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना भी की जाती है। मनुष्य अपने कठिन परिस्थितियों में दुःख में, भगवान का स्मरण अवश्य करता है। सुखी जीवन और सदैव भगवान की कृपा प्राप्ति के लिए श्रद्धा भक्ति के साथ भगवान की पूजा अर्चना करनी चाहिए।
६ – शास्त्र सिद्धांतों को सुनना और मानना
कई पुराणों और शास्त्रों में धर्म-ज्ञान संबंधी कई बातें बताई गई हैं। जो बातें न कि सिर्फ उस समय बल्कि आज भी बहुत उपयोगी हैं। अगर उन सिद्धान्तों का जीवन में पालन किया जाए तो किसी भी कठिनाई का सामना आसानी से किया जा सकता है। शास्त्रों में दिए गए सिद्धांतों से सीख के साथ-साथ पुण्य भी प्राप्त होता है। इसलिए, शास्त्रों और पुराणों का अध्यन और श्रवण करना चाहिए।
७ – लज्जा
किसी भी मनुष्य में लज्जा (शर्म) होना भी आवश्यक होता है। लज्जाहीन मनुष्य पशु के समान होता है। जिस मनुष्य के मन में लज्जा का भाव नहीं होता, वह कोई भी दुष्कर्म कर सकता है। जिसके कारण अनेक बार मात्र उसे ही नहीं अपितु उसके परिवार को भी अपमान का पात्र बनना पड़ सकता है। लज्जा ही मनुष्य को उचित और उचित-अनुचित में अन्तर करना सिखाती है। मनुष्य को अपने मन में लज्जा का भाव निश्चित ही रखना चाहिए।
८ – सदबुद्धि
सद्बुद्धि अर्थात परमात्मा द्वारा प्रदत्त विशेष बुद्धि, जिससे कोई भी मनुष्य अपने विवेक से स्वयं का तो कल्याण करता ही साथ साथ समाज का भी कल्याण करता है।
किसी भी मनुष्य के चरित्र को अच्छा या बुरा उसकी बुद्धि ही बनाती है। सकारात्मक सोच रखने वाला व्यक्ति जीवन में सदैव ही सफलता प्राप्त करता है। नकारात्मक सोच रखने वाला मनुष्य कभी उन्नति नहीं कर पाता। मनुष्य की बुद्धि उसके स्वभाव को दर्शाती है। सदबुद्धि वाला मनुष्य धर्म का पालन करने वाला होता है। सद्बुद्धि कभी कुकर्म नहीं करने देती। इसलिए सदबुद्धि का पालन करना चाहिए।
९- जप
जीवन में कुछ समस्याएं ऐसी भी उत्पन्न हो जाती हैं जिनका निराकरण मात्र भगवान का नाम जपने से ही पाया जा सकता है। जो मनुष्य पूरी श्रद्धा भक्तियुक्त होकर भगवान का नाम जपता हो, उस पर भगवान की कृपा सदैव बनी रहती है। भगवान का भजन-कीर्तन करने से मन को शांति मिलती है और पुण्य की भी प्राप्ति होती है। शास्त्रों के अनुसार, कलियुग में देवी-देवताओं का केवल नाम ले लेने मात्र से ही पापों से मुक्ति मिल जाती है।
कलियुग केवल नाम अधारा।
सुमिरि सुमिरि नर उतरिहिं पारा॥
१० – हवन
हवन अथवा यज्ञ भारतीय परंपरा अथवा हिंदू धर्म में शुद्धीकरण का एक कर्मकांड है। कुण्ड में अग्नि के माध्यम से ईश्वर की उपासना करने की प्रक्रिया को यज्ञ कहते हैं। हवि, हव्य अथवा हविष्य वह पदार्थ हैं जिनकी अग्नि में आहुति दी जाती है।
हवन कुंड में अग्नि प्रज्वलित करने के पश्चात इस पवित्र अग्नि में फल, शहद, घी, काष्ठ इत्यादि पदार्थों की आहुति प्रमुख होती है। वायु प्रदूषण को कम करने के लिए भारत देश में विद्वान लोग यज्ञ किया करते थे और तब हमारे देश में कई तरह के रोग नहीं होते थे ।
शुभकामना, स्वास्थ्य एवं समृद्धि इत्यादि के लिए भी हवन किया जाता है। अग्नि किसी भी पदार्थ के गुणों को कई गुना बढ़ा देती है । जैसे अग्नि में अगर मिर्च डाल दी जाए तो उस मिर्च का प्रभाव बढ़ कर कई लोगो को दुख पहुंचाता है उसी प्रकार अग्नि में जब औषधीय गुणों वाली लकड़ियां और शुद्ध गाय का घी डालते हैं तो उसका प्रभाव बढ़ कर लाखों लोगों को सुख पहुंचाता है।
श्री हरि हरात्मक देवें सदा मुद मंगलमय हर्ष । सुखी रहे परिवार संग अपना भारतवर्ष ॥
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