गृह निर्माण, भूमि पूजन, नींव खुदाई, नींव में कलश स्थापन, एवं गृहप्रवेश संबंधित विचारणीय तथ्य

“ॐ हरि हर नमो नमःॐ”
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वास्तु शास्त्र’ का हमारे जीवन में बहुत महत्व है। किसी भी प्रकार के भवन निमार्ण में वास्तु शास्त्र का बड़ा ही महत्व होता है। यदि वास्तु के नियम का पालन किया जाये तो जीवन सुखमय हो जाता है।

वास्तु शास्त्र के अनुसार भवन निमार्ण करने के साथ-साथ घर की वस्तुओं के रखरखाव में भी वास्तुशास्त्र का बहुत अधिक महत्व है. जब भी आप मकान बनाएं तो वास्तु के नियमों का पालन अवश्य करें। जिससे घर में सुख शांति तथा सम्रद्धि बनी रहे। सुख, शांति समृद्धि के लिए नवीन गृह निर्माण के पूर्व वास्तुदेव का पूजन करना चाहिए एवं निर्माण के पश्चात् गृह-प्रवेश के शुभ अवसर पर वास्तु-शांति, होम-हवन इत्यादि किसी योग्य और अनुभवी ब्राह्मण, गुरु अथवा पुरोहित के द्वारा अवश्य करवाना चाहिए। 

श्रीमद्भागवत महापुराण के पांचवें स्कंद में लिखा है कि पृथ्वी के नीचे पाताल लोक है और इसके स्वामी श्री शेषनाग हैं, इसलिए कभी भी, किसी भी स्थान पर नीव पूजन/भूमि पूजन करते समय चांदी के नाग का जोड़ा रखा जाता हैं।

वास्तु प्राप्ति के लिए अनुष्ठान, भूमि पूजन, नींव खनन, कुआं खनन, शिलान्यास, द्वार स्थापना व गृह प्रवेश आदि अवसरों पर वास्तु देव की पूजा का विधान है। ध्यान रखें यह पूजन किसी शुभ दिन या फिर रवि पुष्य योग को ही कराना चाहिए।

आवश्यक सामग्री

रोली, मोली, पान के पत्ते, लौंग, इलाइची, साबुत, सुपारी, जौ, कपूर, चावल, आटा, काले तिल, पीली सरसों, धूप, हवन सामग्री, पंचमेवा(काजू, बादाम, पिस्ता, किशमिश, अखरोट), गाय का शुद्ध घी, जल के लिए तांबे का पात्र, श्रीफल (नारियल), सफेद वस्त्र, लाल वस्त्र, लकड़ी के २ पटरे, पुष्प, मिट्टी के दीपक, आम के पत्ते, हवन समिधा (आम की लकड़ी), पंचामृत (गंगाजल, दूध, दही, घी, शहद, शक्कर), तांबे का कलश, चावल, हल्दी चूर्ण, साबुत हल्दी गांठ, पीली सरसों, चांदी की धातु में नाग-नागिन का जोड़ा, अष्टधातु, कश्यप, ५ कौड़ियां, ५ सुपारी, सिंदूर, दूर्वा, बताशे, पञ्चरत्न, पांच नई ईंटें आदि।

लग्न शुद्धि

गृहारंभ हेतु स्थिर या द्विस्वभाव राशि का बलवान लग्न लेना चाहिए। (प्रातः अपराह्न या संध्याकाल में गृहारंभ करना चाहिए) उपरोक्त लग्न के केंद्र, त्रिकोण स्थानों में शुभ ग्रह तथा ३, ६, ११वें स्थान में अशुभ (पापग्रह) हों या छठा स्थान खाली हो। आठवां और बारहवां स्थान भी ग्रह रहित होना चाहिए। इस प्रकार का लग्न और ग्रह स्थिति भवन निर्माण के शुभारंभ हेतु श्रेष्ठ कही गई है।

श्रीशुकदेव के मतानुसार पाताल से तीस हजार योजन दूर श्री शेषनाग जी विराजमान हैं। श्री शेषनाग जी अपने सिर पर पृथ्वी को धारण किये हुए हैं। जब ये शेष प्रलयकाल में जगत् के संहार की इच्छा करते हैं, तो क्रोध से कुटिल भृकुटियों के मध्य तीन नेत्रों से युक्त ११ रूद्र त्रिशुल लिए प्रकट होते हैं। गौरतलब है कि पौराणिक ग्रंथो में शेषनाग के फण पर पृथ्वी के टिके होने के संकेत मिलते हैं।

नींव पूजन का कर्मकांड इस मनोवैज्ञानिक विश्वास पर आधारित है कि जैसे श्री शेषनाग जी अपने फण पर संपूर्ण पृथ्वी को धारण किए हुए हैं ठीक उसी प्रकार मेरे इस भवन की नींव भी प्रतिष्ठित किए हुए चांदी के नाग के फन पर पूर्ण मजबूती के साथ स्थापित रहे, क्योंकि श्री शेषनाग जी क्षीरसागर में रहते हैं इसलिए पूजन के कलश में दूध, दही, घी डालकर मंत्रों से आह्वाहन करके श्री शेषनाग जी को बुलाया जाता है ताकि वे साक्षात उपस्थित होकर भवन की रक्षा वहन करें। नींव खोदते समय यदि भूमि के भीतर से पत्थर या ईंट निकले तो आयु की वृद्धि होती है। जिस भूमि में गड्ढा खोदने पर राख, कोयला, भस्म, हड्डी, भूसा आदि निकले, उस भूमि पर मकान बनाकर रहने से रोग होते हैं तथा आयु का ह्रास होता है और दु:ख की प्राप्ति होती है। ।  

पौराणिक ग्रंथों में शेषनाग के फण पर पृथ्वी टिकी होने का उल्लेख मिलता है

शेषं चाकल्पयद्देवमनन्तं विश्वरूपिणम् ।
यो धारयति भूतानि धरां चेमां सपर्वताम् ॥

इन परमदेव ने विश्वरूप अनंत नामक देवस्वरूप शेषनाग को पैदा किया, जो पहाड़ों सहित सारी पृथ्वी को धारण किए है। उल्लेखनीय है कि हजार फणों वाले श्री शेषनाग जी सभी नागों के राजा हैं। भगवान की शय्या बनकर सुख पहुंचाने वाले, उनके अनन्य भक्त हैं। अनेक बार भगवान के साथ-साथ अवतार लेकर उनकी लीला में भी साथ होते हैं। श्रीमद्भागवत के १०वें अध्याय के २९वें श्लोक में भगवान श्री कृष्ण जी ने कहा है- “अनन्तश्चास्मि नागानां” अर्थात मैं नागों में शेषनाग हूं।

नींव पूजन का पूरा कर्मकांड इस मनोवैज्ञानिक विश्वास पर आधारित है कि जैसे शेषनाग अपने फण पर पूरी पृथ्वी को धारण किए हुए हैं, ठीक उसी तरह मेरे इस घर की नींव भी प्रतिष्ठित किए हुए चांदी के नाग के फण पर पूरी मजबूती के साथ स्थापित रहे। शेषनाग क्षीरसागर में रहते हैं। इसलिए पूजन के कलश में दूध, दही, घी डालकर मंत्रों से आह्वान पर शेषनाग को बुलाया जाता है, ताकि वे घर की रक्षा करें। विष्णुरूपी कलश में लक्ष्मी स्वरूप सिक्का डालकर फूल और दूध पूजा में चढ़ाया जाता है, जो नागों को सबसे ज्यादा प्रिय है। भगवान शिवजी के आभूषण तो नाग हैं ही। लक्ष्मण और बलराम भी शेषावतार माने जाते हैं।

गृहारंभ की नींव

वैशाख, श्रावण, कार्तिक, मार्गशीर्ष और फाल्गुन इन चंद्रमासों में गृहारंभ शुभ होता है। इनके अलावा अन्य चंद्रमास अशुभ होने के कारण निषिद्ध कहे गये हैं। वैशाख में गृहारंभ करने से धन धान्य, पुत्र तथा आरोग्य की प्राप्ति होती है। श्रावण में धन, पशु और मित्रों की वृद्धि होती है। कार्तिक में सर्वसुख की प्राप्ति होती है। मार्गशीर्ष में उत्तम भोज्य पदार्थों और धन की प्राप्ति होती है। फाल्गुन में गृहारंभ करने से धन तथा सुख की प्राप्ति और वंश वृद्धि होती है। किंतु उक्त सभी मासों में मलमास का त्याग करना चाहिए।

भवन निर्माण कार्य शुरू करने के पहले अपने आदरणीय विद्वान पंडित से शुभ मुहूर्त निकलवा लेना चाहिए। 

भवन निर्माण में शिलान्यास के समय ध्रुव तारे का स्मरण करके नींव रखें। संध्या काल और मध्य रात्रि में नींव न रखें। नवीन भवन निर्माण में ईंट, पत्थर, मिट्टी ओर लकड़ी नई ही उपयोग करना। जीर्ण भवन की निकली सामग्री नए मकान में लगाना हानिकारक होता है। 

किसी भी इमारत के निर्माण में कई क्रिया-व्यापार जुडे़ रहते हैं। जैसे नींव डालने के लिए खुदाई करना, कुंए की खुदाई, वास्तविक निर्माण कार्य आरंभ करना, रेत डालना, दरवाजे़ लगाना आदि। इन सबके लिए विशेष मुहूर्त होते हैं जिनका पालन करने से शुभ परिणाम प्राप्त केए जा सकते हैं, साथ ही निर्माण कार्य भी तेजी से और सुरक्षित ढंग से होता है।

नींव की खुदाई विधि

भूमि पूजन के बाद नींव की खुदाई ईशान कोण से ही प्रारंभ करें। ईशान के पश्चात आग्नेय कोण की खुदाई करें। आग्नेय के पश्चात वायव्य कोण, वायव्य कोण के पश्चात नैऋत्य कोण की खुदाई करें। कोणों की खुदाई के पश्चात ही दिशाओं की खुदाई करें। क्रमशः पूर्व, उत्तर, पश्चिम और दक्षिण दिशा में खुदाई करें।

नींव की भराई विधि

नींव की भराई, नींव की खुदाई के विपरीत क्रम से करें। सबसे पहले नैऋत्य कोण की भराई करें। उसके बाद क्रमशः वायव्य, आग्नेय, ईशान की भराई करें। अब दिशाओं में नींव की भराई करें। सबसे पहले दक्षिण दिशा में भराई करें। अब पश्चिम, उत्तर व पूर्व में क्रम से भराई करें।

नींव पूजन में कलश स्थापना विधि

नींव पूजन में तांबे का कलश स्थापित किया जाना चाहिए। कलश के अंदर चांदी के सर्प का जोड़ा, लोहे की ४ कील, हल्दी की ५ गांठे, पान के ११ पत्तें, तुलसी की ३५ पत्तियों, मिट्टी के ११ दीपक, छोटे आकार के ५ औजार, सिक्के, आटे की पंजीरी, फल, श्रीफल, गुड़, ५ चौकोर पत्थर, शहद, जनेऊ, राम नाम पुस्तिका, पञ्चरत्न, पञ्चधातु रखना चाहिए। समस्त सामग्री को कलश में रखकर कलश का मुख लाल कपड़े से बांधकर ईशान कोण में नींव में स्थापित करना चाहिए।

भूमि पूजन तथा गृहारम्भ

भूखंड पर भवन निर्माण के लिए नींव की खुदाई और शिलान्यास शुभ मुहूर्त में किया जाना चाहिए। शिलान्यास का अर्थ है शिला का न्यास अर्थात् गृह कार्य निर्माण प्रारम्भ करने से पुर्व उचित मुहूर्त में खुदाई कार्य करवाना। यदि मुहूर्त सही हो तो भवन का निर्माण शीघ्र और बिना रुकावट के पूरा होता है। शिलान्यास के लिए उपयुक्त स्थान पर नींव के लिए खोदी गई खात (गड्ढे) में पूजन एवम् अनुष्ठान पूर्वक पांच शिलाओं को स्थापित किया जाता है।

(१) शास्त्र के अनुसार शिलान्यास के लिए खात (गड्ढा) सूर्य की राशि को ध्यान में रखकर किया जाता है, जैसे-

ईशान कोण सूर्य खात निर्णय राशि ५,६,७, (सिंह, कन्या, तुला)
आर्ग्नेय कोण राशि २, ३, ४, (वृष, मिथुन, कर्क)
नैऋत्य कोण राशि ११,१२,१ (कुंभ, मीन, मेष)
वायव्य कोण राशि ८, ९,१० (वृश्चिक, धनु, मकर)

आधुनिक वास्तुशस्त्रियों का मानना है कि किसी भी समय में खुदाई केवल उत्तर-पूर्व दिशा से ही शुरू करनी चाहिए।

(२) जब भूमि सुप्तावस्था में हो तो खुदाई शुरू नहीं करनी चाहिए। सूर्य संक्रांति से ५, ६, ७, ९, ११, १५, २०, २२, २३ एंव २८वें दिन भूमि शयन होता है। मतान्तर से सूर्य के नक्षत्र ५, ७, ९,१२,१९ तथा २६वें नक्षत्र में भूमि शयन होता है।  

(३) मार्गशीर्ष, फाल्गुन, वैशाख, माघ, श्रावण और कार्तिक में गृह आदि का निर्माण करने से गृहपति को पुत्र तथा स्वास्थ्य लाभ होता है।

(४) महर्षि वशिष्ठ के मत में शुक्लपक्ष में गृहारम्भ करने से सर्वविध सुख और कृष्णपक्ष में चोरों का भय होता है।

(५) गृहारम्भ में २, ३, ५, ६, ७, १०, ११, १२, १३, एवम १५ तिथियां शुभ होती हैं। प्रतिपदा को गृह निर्माण करने से दरिद्रता, चतुर्थी को धनहानि, अष्टमी को उच्चाटन, नवमी को शस्त्र भय, अमावस्या को राजभय और चतुर्दशी को स्त्रीहानि होती है। महर्षि भृगु के मत में चतुर्थी, अष्टमी, अमावस्या तिथियां, सूर्य, चन्द्र और मंगलवारों को त्याग देना चाहिए।

(६) चित्रा, अनुराधा, मृगशिरा, रेवती, पुष्य, उत्तराषाढा, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराभाद्रपद, रोहिणी, धनिष्ठा और शतभिषा नक्षत्रों में गृहारम्भ शुभ होता है।

(७) शुभ्रग्रह से युक्त और वृष्ट, स्थिर तथा द्विस्वभाव लग्न में वास्तुकर्म शुभ होता है। शुभग्रह बलवान होकर दशमस्थान हो अथवा शुभग्रह पंचम, नवम हो और चंद्रमा, १, ४, ७, १० स्थान में हो तथा पापग्रह तीसरे, छठे ग्यारहवें स्थान में हो तो शुभ होता है।

(८) रविवार या मंगलवार को गृह आरम्भ करना कष्टदायक होता है। सोमवार को कल्याणकारी, बुधवार को धनदायक, गुरूवार को बल-बुद्धिदायक, शुक्रवार को सुख-सम्पदाकारक तथा शनिवार को कष्टविनाशक होता है।

(९) शनिवार स्वाति नक्षत्र, सिंह लग्न, शुक्लपक्ष, सप्तमी तिथि, शुभ योग तथा श्रावण मास, इन सात सकारों के योग में किया गया वास्तुकर्म पुत्र, धन-धान्य और ऐश्वर्य दायक होता है।

(१०) पुष्य, उत्तरफाल्गुनी, उत्तराषढ़ा, उत्तराभाद्रपद, रोहिणी, मृगशिरा, श्रवण, अश्लेषा एवम् पूर्वाषाढ़ नक्षत्र यदि बृहस्पति से युक्त हों और गुरुवार हो तो उसमें बनाया गया भवन पुत्र और रत्नदायक होता है।

(११) विशाखा, अश्विनी, चित्रा, घनिष्ठा, शतभिषा और आर्द्रा ये नक्षत्र शुक्र से युक्त हो और शुक्रवार का ही दिन हो तो ऐसा भवन धन तथा धान्य देता है।

(१२) रोहिणी, अश्विनी, उत्तराफाल्गुनी, चित्रा हस्त ये नक्षत्र बुध से युक्त हो और उस दिन बुधवार भी हो तो वह भवन सुखदायक और पुत्रदायक होता है।

(१३) कर्क लग्न में चंद्रमा, केंद्र में बृहस्पति, शेष ग्रह मित्र तथा उच्च अंश में हों तो ऐसे समय में बनाया हुआ भवन लक्ष्मी से युक्त होता है।

(१४) मीन राशि में स्थित शुक्र यदि लग्न में हो या कर्क का बृहस्पति चौथे स्थान में स्थित हो अथवा तुला का शनि ग्यारहवें स्थान में हो तो वह घर सदा धन युक्त रहता है।

(१५) चंद्रमा, गुरू या शुक्र यदि निर्बल, नीचराशि में या अस्त हो तो गृहारम्भकार्य नहीं करना चाहिए।

(१६) यदि घर की कोई महिला सदस्य गर्भावस्था कें आखिरी कुछ माह में हो या घर का कोई सदस्य गंभीर रूप से बीमार हो तो खुदाई का कार्य प्रारम्भ नहीं करना चाहिए।

(१७) शनिवार रेवती नक्षत्र, मंगल की हस्त, पुष्य नक्षत्र में स्थिति, गुरू शुक्र अस्त, कृषणपक्ष, निषिद्ध मास, रिक्तादि तिथियां, तारा-अशुद्धि, भूशयन, मंगलवार, अग्निवान, अग्निपंचक, भद्रा, पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र तथा वृश्चिक, कुंभ लग्नादि गृहारम्भ में वर्जित है।

गृहारंभ और सौरमास

गृहारंभ के मुहूर्त में चंद्रमासों की अपेक्षा सौरमास अधिक महत्वपूर्ण, विशेषतः नींव खोदते समय सूर्य संक्रांति विचारणीय है। 
पूर्व कालामृत का कथन है- गृहारंभ में स्थिर व चर राशियों में सूर्य रहे तो गृहस्वामी के लिए धनवर्द्धक होता है। जबकि द्विस्वभाव (३, ६, ९, १२) राशि गत सूर्य मरणप्रद होता है। अतः मेष, वृष, कर्क, सिंह, तुला, वृश्चिक, मकर और कुंभ राशियों के सूर्य में गृहारंभ करना शुभ रहता है। मिथुन, कन्या, धनु और मीन राशि के सूर्य में गृह निर्माण प्रारंभ नहीं करना चाहिए।

विभिन्न सौरमासों में गृहारंभ का फल

देवऋषि नारद जी ने इस प्रकार बताया है कि मेषमास-शुभ, वृषमास-धन वृद्धि, मिथुनमास-मृत्यु कर्कमास-शुभ, सिंहमास-सेवक वृद्धि, कन्यामास-रोग, तुलामास-सुख, वृश्चिकमास-धनवृद्धि, धनुमास- बहुत हानि, मकरमास-धन आगम, कुंभमास-लाभ, और मीनमास में गृहारंभ करने से गृहस्वामी को रोग तथा भय उत्पन्न होता है। सौरमासों और चंद्रमासों में जहां फल का विरोध दिखाई दे वहां सौरमास का ग्रहण और चंद्रमास का त्याग करना चाहिए क्योंकि चंद्रमास गौण है।

शिलान्यास

गृहारंभ हेतु नींव खात चक्रम (गड्ढा) और वास्तुकालसर्प दिशा चक्र में प्रदर्शित की गई सूर्य की राशियां और राहु पृष्ठीय कोण नींव खनन के साथ-साथ शिलान्यास करने, बुनियाद भरने हेतु, प्रथम चौकोर अखण्ड पत्थर रखने हेतु, स्तंभ (खम्भे, पिलर) बनाने हेतु इन्ही राशियों व कोणों का विचार करना चाहिए। जो क्रम नींव खोदने का लिया गया था वही प्रदक्षिण क्रम नींव भरने का है। आधुनिक समय में मकान आदि बनाने हेतु आर.सी.सी. के पिलर प्लॉट के विभिन्न भागों में बना दिये जाते हैं। ध्यान रखें, यदि कोई पिलर राहु मुख की दिशा में पड़ रहा हो तो फिलहाल उसे छोड़ दें। सूर्य के राशि परिवर्तन के बाद ही उसे बनाएं तो उत्तम रहेगा। कतिपय वास्तु विदों का मानना है कि सर्व प्रथम शिलान्यास आग्नेय दिशा में करना चाहिए।

वास्तुपुरुष के मर्मस्‍थान

सिर, मुख, हृदय, दोनों स्तन और लिंग, ये वास्तुपुरुष के मर्मस्थान हैं। वास्तुपुरुष का सिर ‘शिखी’ में, मुख ‘आप्’ में, हृदय ‘ब्रह्मा’ में, दोनों स्तन ‘पृथ्वीधर’ तथा ‘अर्यमा’ में और लिंग ‘इन्द्र’ तथा ‘जय’ में है। वास्तुपुरुष के जिस मर्मस्थान में कील, खंभा आदि गाड़ा जाएगा, गृहस्वामी के उसी अंग में पीड़ा या रोग उत्पन्न हो जाएगा।

वास्तु पुरुष की दिशा विचार

महाकवि कालिदास और महर्षि वशिष्ठ अनुसार तीन-तीन चंद्रमासों में वास्तु पुरुष की दिशा निम्नवत् रहती है।
भाद्रपद, कार्तिक, आश्विन मास में ईशान की ओर। फाल्गुन, चैत्र, वैशाख में नैऋत्य की ओर। ज्येष्ठ, आषाढ, श्रावण में आग्नेय कोण की ओर। मार्गशीर्ष, पौष, माघ में वायव्य दिशा की ओर वास्तु पुरुष का मुख होता है। वास्तु पुरुष का भ्रमण ईशान से बायीं ओर अर्थात् वामावर्त्त होता है। वास्तु पुरुष के मुख पेट और पैर की दिशाओं को छोड़कर पीठ की दिशा में अर्थात् चौथी, खाली दिशा में नींव की खुदाई शुरु करना उत्तम रहता है।

महर्षि वशिष्ठ आदि ने जिस वास्तु पुरुष को ‘वास्तुनर’ कहा था, कालांतर में उसे ही शेष नाग, सर्प, कालसर्प और राहु की संज्ञा दे दी गई। अतः पाठक इससे भ्रमित न हों। मकान की नीवं खोदने के लिए सूर्य जिस राशि में हो उसके अनुसार राहु या सर्प के मुख, मध्य और पुच्छ का ज्ञान करते हैं। सूर्य की राशि जिस दिशा में हो उसी दिशा में, उस सौरमास राहु रहता है। जैसा कि कहा गया है- ”यद्राशिगोऽर्कः खलु तद्दिशायां, राहुः सदा तिष्ठति मासि मासि।’‘  यदि सिंह, कन्या, तुला राशि में सूर्य हो तो राहु का मुख ईशान कोण में और पुच्छ नैत्य कोण में होगी और आग्नेय कोण खाली रहेगा। अतः उक्त राशियों के सूर्य में इस खाली दिशा (राहु पृष्ठीय कोण) से खातारंभ (गड्ढा खोदना) या नींव खनन प्रारंभ करना चाहिए। वृश्चिक, धनु, मकर राशि के सूर्य में राहु मुख वायव्य कोण में होने से ईशान कोण रिक्त रहता है। कुंभ, मीन, मेष राशि के सूर्य में राहु मुख नैऋत्य कोण में होने से वायव्य कोण रिक्त रहेगा। वृष, मिथुन, कर्क राशि के सूर्य में राहु का मुख आग्नेय कोण में होने से नैऋत्य दिशा रिक्त रहेगी। उक्त सौर मासों में इस रिक्त दिशा (कोण) से ही नींव खोदना शुरु करना चाहिए। अब एक प्रश्न उठता है कि हम किसी रिक्त कोण में गड्ढ़ा या नींव खनन प्रारंभ करने के बाद किस दिशा में खोदते हुए आगे बढ़ें? वास्तु पुरुष या सर्प का भ्रमण वामावर्त्त होता है। इसके विपरीत क्रम से- बाएं से दाएं (दक्षिणावर्त्त/क्लोक वाइज) नीवं की खुदाई करनी चाहिए। यथा आग्नेय कोण से खुदाई प्रारंभ करें तो दक्षिण दिशा से जाते हुए नैऋत्य कोण की ओर आगे बढ़ें। विश्वकर्मा प्रकाश में बताया गया है- 

‘ईशानतः सर्पति कालसर्पो विहाय सृष्टिं गणयेद् विदिक्षु।
शेषस्य वास्तोर्मुखमध्य पुछंत्रयं परित्यज्यखनेच्चतुर्थम्॥’
अर्थात
वास्तु रूपी सर्प का मुख, मध्य और पुच्छ जिस दिशा में स्थित हो उन तीनों दिशाओं को छोड़कर चौथी में नींव खनन आरंभ करना चाहिए।

दैनिक कालराहु वास

अर्कोत्तरेवायुदिशां च सोमे, भौमे प्रतीच्यां बुधर्नैते च।
याम्ये गुरौ वन्हिदिशां च शुक्रे, मंदे च पूर्वे प्रवदंति काल॥ 

राहुकाल का वास रविवार को उत्तर दिशा में, सोमवार को वायव्य में, मंगल को पश्चिम में, बुधवार को नैऋत्य में, गुरुवार को दक्षिण में, शुक्रवार को आग्नेय में व शनिवार को पूर्व दिशा में राहुकाल का वास रहता है। यात्रा के अलावा गृह निर्माण (गृहारंभ), गृहप्रवेश में राहुकाल का परित्याग करना चाहिए। जैसे-सौरमास के अनुसार निकाले गये मुहूर्त के आधार पर आग्नेय दिशा में नींव खनन/शिलान्यास करना निश्चित हो। किंतु शुक्रवार को आग्नेय में, शनिवार को पूर्व दिशा में राहुकाल का वास रहता है।

अतः शुक्रवार को आग्नेय दिशा में गृहारंभ हेतु नींव खनन/ शिलान्यास प्रारंभ न करें। वर्तमान समय में उत्तर समय में उत्तर भारत गृह निर्माण के समय कालराहु या राहुकाल का विचार नहीं किया जाता है। जबकि इसका विचार करना अत्यंत महत्वपूर्ण है। भूमि खनन कार्य और शिलान्यास आदि में दैनिक राहुकाल को भी राहुमुख की भांति वर्जित किया जाना चाहिए। सोमवार, बुधवार, गुरुवार, शुक्रवार गृहारंभ हेतु उत्तम कहे गये हैं। किंतु इन शुभ वारों में कालराहु की दिशा का निषेध करना चाहिए। 

रविवार, मंगलवार को गृहारंभ करने से अग्निभय और शनिवार में अनेक कष्ट होते हैं। भू-शयन विचार सूर्य के नक्षत्र से चंद्रमा का नक्षत्र यदि ५, ७, ९, १२, १९, २६वां रहे तो पृथ्वी शयनशील मानी जाती हैं। भू-शयन के दिन खनन कार्य वर्जित है। अतः उपरोक्तानुसार गिनती के नक्षत्रों में नींव की खुदाई न करें। गृहारंभ के शुभ नक्षत्र, रोहिणी, मृगशिरा, पुष्य, उत्तराफाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाती, अनुराधा, उत्तराषाढ़ा और रेवती आदि वेध रहित नक्षत्र गृहारंभ हेतु श्रेष्ठ माने गये हैं। 

देवऋषि नारद के अनुसार गृहारंभ के समय गुरु यदि रोहिणी, पुष्य, मृगशिरा, आश्लेषा, तीनों उत्तरा या पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र में हों तो गृहस्वामी श्रीमन्त (धनवान) होता है तथा उसके घर में उत्तम राजयोग वाले पुत्र/पौत्रों का जन्म होता है। इन फलों की प्राप्ति हेतु गुरुवार को गृहारंभ करें। आर्द्रा, हस्त, धनिष्ठा, विशाखा, शतभिषा या चित्रा नक्षत्र में शुक्र हो और शुक्रवार को ही शिलान्यास करें तो धन-धान्य की खूब समृद्धि होती है। गृहस्वामी कुबेर के समान सम्पन्न हो जाता है।

कब करें गृहप्रवेश ?

भूरिपुष्पविकरं सतोरण तायपूर्णकलशेपशेभितम्।
धूपनन्धबलिपूजितानरं ब्राह्राणध्वनियुतं विशेद गृहम॥

बृहतसंहिता के अनुसार फूलों से सजे हुए, बन्दनवार लगे हुए, तोरणों से सुसज्जित, जलपूर्ण कलशों से सुशोभित, देवताओं के विधिपूर्वक पूजन से शुद्ध, ब्राह्राणों के वेदपाठ से युक्त घर में प्रवेश करें। यहां देवतापूजन में वास्तुपूजन तथा वास्तुशान्ति का भी समावेश है। 

(१) नवीन घर में प्रवेश उत्तरायण में करना चाहिए। माघ, फाल्गुन, ज्येष्ठ और वैशाख में गृहप्रवेश शुभ होता है तथा कार्तिक, मार्गशीर्ष में गृहप्रवेश मध्यम होता है।

(२) निरन्तर वृद्धि के लिए शुक्ल पक्ष में प्रवेश शुभ माना गया है। शुक्लपक्ष की २, ३, ५, ६, ७, ८, १०, ११ और १३ तिथियां शुभ होती हैं। ४९,१४वीं तिथि और अमावस्या को कदापि नूतन गृह प्रवेश न करें। 

(३) चित्रा, तीनों उत्तरा, रोहिणी, मृगशिरा, अनुराधा, धनिष्ठा, रेवती और शतभिषा नक्षत्रों में प्रवेश करने से धन, आयु, आरोग्य, पुत्र, पौत्र तथा वंश में वृद्धि होती है।

(४) गृहस्वामी की जन्म राशि से गोचरस्थ सूर्य, चंद्र, बृहस्पति और शुक्र का प्रबल होना आवश्यक है।

(५) मंगलवार और रविवार के अलावा अन्य दिन शुभ हैं।

(६) भद्रा, पंचबाण और रिक्ता तिथियां त्याज्य हैं।

(७) स्थिर और द्विस्वभाव लग्न (२, ५, ८, ११, ३, ६, ९, १२, राशियां) या गृहस्वामी के चंद्र लग्न या जन्म लग्न से ३, ६, १०, ११, राशियां शुभ हैं। गृहप्रवेश लग्न में १, ७, १०, ५, ९, २, ३,११ भावों में शुभ ग्रह तथा ३, ६,११ भावों में पापग्रह होने चाहिए। ४, ८ भाव रिक्त होने चाहिए। लग्न राशि, गृहस्वामी के जन्म लग्न या जन्म राशि से आठवीं राशि नहीं होनी चाहिए।

(८) नवीन गृह प्रवेश के शुभ अवसर पर उत्तरायण सूर्य, गुरू शुक्रोदय, कलश चक्र शुद्धि, कर्त्ता की नाम राशि से सूर्य-चंद्र बल होना चाहिए। किंतु दग्धा, अमावस्या, रिक्ता, शून्य तिथियां, द्वादशी व शुक्रवार का योग, चर लग्न, नवांश, धनु कुंभ तथा मीन संक्रातियां वर्जित हैं।

॥ श्रीरस्तु ॥
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श्री हरि हरात्मक देवें सदा, मुद मंगलमय हर्ष।
सुखी रहे परिवार संग, अपना भारतवर्ष ॥
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संकलनकर्ता
श्रद्धेय पंडित विश्वनाथ द्विवेदी ‘वाणी रत्न’
संस्थापक, अध्यक्ष एवं प्रबंध निदेशक
(‘हरि हर हरात्मक’ ज्योतिष संस्थान)
संपर्क सूत्र – 07089434899

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About the Author

Pandit Vishwanath Prasad Dwivedi

Pandit Vishwanath Prasad Dwivedi personality is best described with the following words: extravert.
Pandit Vishwanath Prasad Dwivedi is active, expressive, social, interested in many things. Pandit Vishwanath Dwivedi has more than 8 years of executive experience in the field of Astrology. With all of his heart and mind, he devotes his time to this profession. He knows that he is in a certain position to help people and make their lives better. And, the most fascinating aspect of his personality is his benevolence in approaching people which leaves an impact on them to last forever. His primary area of expertise is Vedic Astrology and he uses his skills with full potential to help his clients in the best possible way. To make people happy and put them out of their misery gives him an immense kind of satisfaction. With the most righteous of intentions, he hopes to take his name and fame to the next level and spread his wings on the international domain as well.

Pandit Vishwanath, a luminary in the realm of Vedic Astrology, boasts a rich legacy of almost a decade of unwavering dedication to this ancient science. His profound knowledge transcends the boundaries of time, as he skillfully deciphers the cosmic code imprinted in the Vedas. With a penchant for unraveling celestial mysteries, Pandit Vishwanath has illuminated countless lives with his astute astrological insights. His clients seek solace in his wisdom, knowing that his predictions are rooted in the ancient wisdom of the Vedas, offering both guidance and clarity in the tumultuous sea of life. Pandit Vishwanath's commitment to preserving and disseminating Vedic Astrology's profound teachings is a beacon of hope for those navigating life's challenges. His invaluable expertise continues to inspire and empower seekers on their spiritual journeys.

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